________________ 2222222222222222222222333 | cacacaca cacace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 क्योंकि नियुक्ति में तो 'मनःपर्ययज्ञान पदार्थों को प्रकाशित करता है'- यही कहा है, ऐसा नहीं कहा | a गया कि वह पदार्थों को विषय करता है। वस्तुतः वह विषय तो मन के पर्यायों को करता है, किन्तु . उसके आधार पर (अनुमान से) चिन्तित पदार्थों को जानता है। सूत्रकार बहुत-सी बात सूत्र रूप में है कहते हैं, 'व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः' (व्याख्या के माध्यम से उसमें निहित वैशिष्ट्य को प्रकट कराया जाता है) -इस न्याय से व्याख्यान के साथ सूत्र के हार्द को समझना उचित है। यहां इस नियुक्ति के प्रस्तुत व्याख्याकार आ. हरिभद्र भी गावी गाथा प्रारम्भ करने से पूर्व, यही व्याख्यान ce करने जा रहे हैं कि मनःपर्यायज्ञानी चिन्त्यमान वस्तुओं को साक्षात् नहीं जानता, अनुमान से * जानता है। उपर्युक्त नन्दी सूत्र की गाथा पर इसी दृष्टि से (नन्दी चूर्णि के कर्ता) चूर्णिकार ने भी व्याख्या - ce करते हुए जो अपना मत व्यक्त किया, वह इस प्रकार है- मनःपर्यय ज्ञान अनन्तप्रदेशी मन के पौद्गलिक स्कन्धों तथा तद्गत वर्ण आदि भावों को प्रत्यक्ष जानता है। चिन्त्यमान विषय वस्तु को , a साक्षात् नहीं जानता, क्योंकि चिन्तन का विषय मूर्त और अमूर्त दोनों प्रकार के पदार्थ हो सकते हैं। छद्मस्थ मनुष्य अमूर्त का साक्षात्कार नहीं कर सकता, इसलिए मनःपर्ययज्ञानी चिन्त्यमान वस्तु को अनुमान से ही जानता है सण्णिणा मणत्तेण मणिते मणोखंधे अणंते अणंतपदेसिए दबढ़ताएतम्गतेय वण्णादिएभावे मणपज्जवनाणेणं पच्चक्खं जाणाति त्ति भणितं।मणितमत्थं पुण पच्चक्खं ण पेक्खति, जेण मणालंबणं मुत्तममुत्तं वा, सोय छदुमत्थोतं अणुमाणतो पेक्खति त्ति... (नन्दी चूर्णि, सू. 32) / (दिगम्बर परम्परा का मत-) यहां यह ज्ञातव्य है कि 'मनःपर्याय ज्ञान दूसरे के मन में उठने वाले सभी ज्ञेय पदार्थों को & साक्षात् जानता है' यह मत दिगम्बर परम्परा में विशेष रूप से मान्य रहा है। दिगम्बरपरम्परा के , व प्रसिद्ध आचार्य अकलंक ने मनःपर्याय ज्ञान का स्वरूप यही माना है- 'परकीयमनसि व्यवस्थितमयं . जानाति मनःपर्ययः (राजवार्तिक-1/33/2), अर्थात् दूसरे के मन में उठ रहे पदार्थों को मनःपर्यय , & ज्ञान जानता है। उन्होंने अनुमान से पदार्थों को जानने के मत को सर्वथा नकारते हुए कहा है-: "अन्यदीयमनःप्रतिबन्धात्तन्मनः-संपृक्तानर्थान् जानन् मनःपर्ययोऽनुमानमिति, तन्न।किंकारणम्? " प्रत्यक्षलक्षण-अविरोधात्” (राजवार्तिक-23/4) अर्थात् परकीय मनःसम्बन्धी विचारों को जानना अनुमान है- ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष-लक्षण से विरोध नहीं पाया जाता, अर्थात् 288 89c92c880888080808080920.