SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -RacemeRect नियुक्ति-गाथा-13-15 0 90020902090209 222382322322333333333333333333333333333333333 विशेषार्थ इन्द्रियां पांच हैं- स्पर्शन, रसन, घ्राण, नेत्र और श्रोत्र / इनके भी द्रव्य व भाव रूप से दो-2 दो भेद हैं। द्रव्येन्द्रियां पौगलिक, पुद्गलजन्य होने से अर्थात् अंगोपांग व निर्माण नाम कर्म से निर्मित ल होने से जड़, अचेतन हैं, किन्तु भावेन्द्रियां चेतनाशक्ति की पर्याय होने से भाव रूप हैं। मति ज्ञानावरण ? ca कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न आत्म-विशुद्धि या उस विशुद्धि से उत्पन्न ज्ञान ही भावेन्द्रिय हैं। इनके भी 7 लब्धि व उपयोग -ये दो-दो भेद हैं। मतिज्ञानवरण कर्म के क्षयोपशम -चेतना शक्ति की योग्यता- . विशेष को लब्धि रूप भावेन्द्रिय कहते हैं, और भावेन्द्रिय के अनुसार, आत्मा की विषय-ग्रहण में प्रवृत्ति को उपयोग रूप भावेन्द्रिय कहते हैं। इन्द्रियों की दृष्टि से जीवों के 5 भेद हैं- एकेन्द्रिय (जिनमें मात्र स्पर्शनइन्द्रिय होती हैं), .. ब द्वीन्द्रिय (स्पर्शन व रसन इन्द्रिय से युक्त), त्रीन्द्रिय (स्पर्शन, रसन व घ्राण से युक्त), चतुरिन्द्रिय " ca (स्पर्शन, रसन, घ्राण व नेत्र से सम्पन्न) व पंचेन्द्रिय (स्पर्शन. रसन. घाण. नेत्र व श्रोत्र से सम्पन्न)। & एकेन्द्रिय जीवों के 5 भेद हैं- पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय व वनस्पतिकाय / सभी , एकेन्द्रिय 'स्थावर' कहलाते हैं, शेष द्वीन्द्रिय आदि ‘त्रस' कहलाते हैं। ये सभी (स्थावर व त्रस) पर्याप्त / ca भी होते हैं और अपर्याप्त भी। पर्याप्ति वह शक्ति है जिसके द्वारा जीव गृहीत योग्य पुद्गलों को ग्रहण , ca कर, उनसे इन्द्रिय आदि की रचना पूर्ण करता है। पर्याप्त जीव वे हैं जिनके पर्याप्त नाम कर्म के उदय से इन्द्रियादि-रचना पूर्ण होती है, शेष अपर्याप्त / पर्याप्ति के निम्नलिखित छह भेद हो जाते हैं4 (1) आहारपर्याप्ति, (2) शरीरपर्याप्ति, (3) इन्द्रियपर्याप्ति, (4) श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति, (5) 0 भाषापर्याप्ति और (6) मन-पर्याप्ति / मन व भाषा -इन दोनों को एक मानकर पर्याप्तियों की संख्या : पांच भी मानी गई है। इन पर्याप्तियों का प्रारम्भ युगपत् होता है, क्योंकि जन्म समय से लेकर ही है इनका अस्तित्व पाया जाता है किन्तु पूर्णता क्रम से होती है। उक्त पर्याप्तियों में से एकेन्द्रिय जीवों के " & आदि की चार पर्याप्तियों और विकलेन्द्रिय (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय) जीवों के मनपर्याप्ति के सिवाय शेष पांच पर्याप्तियां, तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के सभी छः पर्याप्तियां होती हैं। पर्याप्त और अपर्याप्ति के निम्न प्रकार से दो भेद भी हैं(1) लब्धि-अपर्याप्त, (2) करण-अपर्याप्त / (3).लब्धि-पर्याप्त, (4) करण-पर्याप्त / पर्याप्त नामकर्म के उदय से जीव अपनी-अपनी पर्याप्तियों से पूर्ण होता है, तथापि जब तक 1 | उसकी शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तब तक उसको पर्याप्त नहीं कहते हैं किन्तु निर्वृत्ति-अपर्याप्त कहते - (r)(r)(r)(r)(r)necke8c680@Recen@ ___109 -
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy