________________ 3333333333 2222222222222 232323 22222222222. -cacacacaaaa श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) parononज्ञान अमूर्त है। अकेवली (छद्मस्थ मनुष्य) अमूर्त को जान नहीं सकता। वह चिन्तन के क्षण में ca पौगलिक स्कन्ध की विभन्न आकृतियों का साक्षात्कार करता है। इसलिए मन के पर्यायों को जानने G का अर्थ भाव मन को जानना नहीं होता, किन्तु भाव मन के कार्य में निमित्त बनने वाले मनोवर्गणा : के पुद्गल स्कन्धों के पर्यायों को जानना होता है। (1) अवधिज्ञान की अपेक्षा मनःपर्यवज्ञान अधिक विशुद्ध होता है। (2) अवधिज्ञान का विषयक्षेत्र सभी रूपी पदार्थ हैं, जबकि मनःपर्यवज्ञान का विषय केवल पर्याप्त संज्ञी जीवों के मानसिक पर्याय ही हैं। (3) इनके स्वामियों में भी अन्तर है। यहां यह विचारणीय है कि अवधिज्ञान का विषय रूपी द्रव्य है और मनोवर्गणा के स्कन्ध भी रूपी द्रव्य हैं। इस प्रकार दोनों का विषय एक ही बन जाता a है। अतः मनःपर्यवज्ञान अवधिज्ञान का एक अवान्तर भेद जैसा प्रतीत होता है। इसीलिए सिद्धसेन ने a अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान को एक माना है। उनकी परम्परा को सिद्धांतवादी आचार्यों ने मान्य नहीं किया है। अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान को एक मानने की विचारसरणि आ. उमास्वामी के सामने रही हो और इसीलिए उन्होंने उसे अमान्य करते हुए अवधिज्ञान व मनःपर्यवज्ञान की स्वतन्त्रता का समर्थन किया हो। मनःपर्यायज्ञान के स्वामी प्रस्तुत गाथा में मनःपर्यवज्ञान के स्वामी का प्रतिपादन किया गया है। चारित्र-सम्पन्न के , ही यह ज्ञान विशिष्ट आत्मीय गुणों से होता है, इसलिए उसे 'गुणप्रत्ययिक' कहा गया है। यह कथन सूत्रात्मक ही है। अन्य शास्त्रों के आधार पर इसका विस्तार से कथन किया जा सकता है (द्र. a नन्दीसूत्र, 21-36) / इसी तरह, भगवती (8/2/142-143) में उल्लेख है कि मनःपर्यवज्ञान आहारक & अवस्था में होता है। अनाहारक अवस्था में उसका वर्जन किया गया है। सामान्यतया आगम में मनःपर्यवज्ञानी के लिए नव अर्हताएं निर्धारित हुई हैं 1. ऋद्धि प्राप्त 2. अप्रमत्त संयत 3. संयत 4. सम्यग्दृष्टि 5. पर्याप्तक 6. संख्येयवर्षायुष्क 7. कर्मभूमिज 8. गर्भावक्रांतिक मनुष्य 9. मनुष्य। तालिका रूप में इसे प्रस्तुत किया जा रहा है अस्वामी अमनुष्य मनुष्य समूर्छिम मनुष्य गर्भावक्रान्तिक मनुष्य अकर्मभूमिज और अंतीपक मनुष्य कर्मभूमिज मनुष्य स्वामी 290 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)928