________________ A RRRRRRRRce 999999999000 222222222222222222238232233333333333333333332 नियुक्ति गाथा-13-15 | 'ईहा' शब्द निष्पन्न हुआ है। ईहन (अर्थात् चेष्टा) ही 'ईहा' है, अर्थात् सद्भूत पदार्थों से | / सम्बद्ध अन्वय-धर्मों और व्यतिरेक धर्मों की जो पर्यालोचना (रूप चेष्टा) होती है, वही 'ईहा' . है। अपोहन अर्थात् निश्चय होना 'अपोह' है। विमर्श करना, अर्थात् 'ईहा' के बाद 'सिर', खुजलाना आदि पुरुषगत धर्म इसमें घटित होते हैं- यह जो प्रतीति होती है, वह 'विमर्श : ( करना, अर्थात् 'ईहा' के बाद 'सिर खुजलाना आदि पुरुषगत धर्म इसमें घटित होते हैं' -यह / ca जो प्रतीति होती है, वह 'विमर्श' है। ‘मार्गणा' का अर्थ है- अन्वय-धर्मों की अन्वेषणा। 'च' , * शब्द समुच्चय ('और') का बोधक है (अर्थात् यह ईहा, अपोह आदि -इन सभी की , & आभिनिबोधिकता बता रहा है)। व्यतिरेक-धर्मों की आलोचना 'गवेषणा' है। संज्ञा यानी , a संज्ञान, अर्थात् व्यञ्जनावग्रह के उत्तरकाल में होने वाला विशेष मतिज्ञान / स्मृति का अर्थ है+ स्मरण, अर्थात् पूर्व अनुभूत पदार्थ का आश्रय लेकर होने वाली प्रतीति / मति यानी मनन, . अर्थात् किसी रूप में पदार्थ का ज्ञान होने पर भी, उस पदार्थ के सूक्ष्म धर्मों के सम्बन्ध में जो की जाने वाली पर्यालोचना रूप बुद्धि / प्रज्ञा यानी प्रज्ञान, अर्थात् सद्भूत वस्तु में यथार्थ में / व स्थित धर्मों की अलोचनात्मक मति जो प्रकृष्ट क्षयोपशम से जनित होती है। ये सभी (ईहा 2 आदि) आभिनिबोधिक यानी मतिज्ञान हैं- यह तात्पर्य है। उक्त रीति से (पृथक्-पृथक् नाम : a बताकर) कुछ भेद का भी संकेत किया गया है, वास्तविक रूप से तो ये सभी मतिज्ञान के 7 पर्याय-शब्द हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ ||12|| a (हरिभद्रीय वृत्तिः) / तत्त्व-भेद-पर्यायैर्मतिज्ञानस्वरूपं व्याख्यायेदानीं नवभिरनुयोगद्वारैः पुनः तद्रूपनिरूपणायेदमाह (नियुक्तिः) संत-पय-परूवणया-दव्वपमाणंच खित्त-फुसणाय। कालो अ अंतरं भाग-भावे अप्पाबहुं चेव // 13 // गइ-इंदिए य काए, जोए वेए कसाय-लेसासु / सम्मत्तनाण-दंसण-संजय-उवओग-आहारे // 14 // भासग-परित्त-पज्जत्त-सुहमे सण्णीय होइ भवचरिमे। आभिणिबोहिअनाणं, मग्गिज्जइ एसु ठाणेसु // 15 // (r)(r) CR@D(r)CRORRORSCR989@cr@@ 103 - &&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&