________________ 33333333333333333333333333333333333333333333 -acancaceae श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 प्रकृतभावार्थस्त्वयम्-आलिङ्गितानन्तरमात्म-प्रदेशैरागृहीतं गन्धादि बादरत्वाद, ca अभावुकत्वात्, अल्पद्रव्यरूपत्वात्, घ्राणादीनां चापटुत्वात् गृह्णाति निश्चिनोतिघ्राणेन्द्रियादिगण . इत्येवं व्यागृणीयात् प्रतिपादयेदितियावत्। (वृत्ति-हिन्दी-) (पुनः) (शंका-) तब भी तो (कर्मधारय समास मानने पर भी), & 'स्पृष्ट' शब्द अतिरिक्त (अनपेक्षित) हो जाता है, क्योंकि जो बद्ध होता है, वह स्पृष्टत्व से , व्यभिचरित (अस्पृष्ट) नहीं हो सकता। विशेषण विशेष्य भाव वहां तो हो सकता है, जहां दोनों : CM पदों के अर्थ परस्पर व्यभिचरित हों, जैसे- 'नीलोत्पल' (नील कमल)। किन्तु 'स्पृष्टबद्ध' में ca तो वैसा उभय पद व्यभिचार नहीं है। (इस प्रकार, विशेषणविशेष्य भाव न होने से, समास ल ही नहीं हो पाएगा।) उत्तर दे रहे हैं- उक्त दोष यहां नहीं है। क्योंकि एक पद के व्यभिचार में . & भी विशेषण-विशेष्य भाव होता है। जैसे- अप्-द्रव्य (जल-द्रव्य), और पृथिवी द्रव्य / तात्पर्य - + यह है कि (अप) जल द्रव्य ही होता है, वह द्रव्यत्व से व्यभिचरित (रहित) नहीं होता, किन्तु & द्रव्य तो जल भी होता है और जल-इतर भी, इसलिए वह (द्रव्य) जल से व्यभिचरित होता है, . फिर भी वहां विशेषण-विशेष्य भाव होता है। a प्रकृत में गाथा का भावार्थ इस प्रकार है- आलिंगित (स्पृष्ट) होने के बाद, आत्मप्रदेशों से जो गंध आदि सर्वतः गृहीत होते हैं, उन्हें ही घ्राण आदि इन्द्रियां ग्रहण करती हैं, निश्चित (निर्णीत) करती हैं, क्योंकि घ्राण आदि इन्द्रियां अपेक्षाकृत 'अपटु' (कम सक्षम) होती हैं और दूसरी तरफ गंध आदि भी स्थूल, अभावुक और अल्पद्रव्यरूप होते हैं- इस & प्रकार व्याख्यान करें, प्रतिपादित करें। विशेषार्थ इन्द्रियों द्वारा किस प्रकार विषयों का ग्रहण होता है- इसका निरूपण प्रज्ञापना (5/1/190) 4 आदि में भी प्राप्त है। विशेषावश्यक भाष्य (336-339) की गाथाओं में तथा उसकी मलधारी हेमचन्द्र कृत शिष्यहिता टीका में भी इसका विस्तार से निरूपण किया गया है। प्रविष्ट, स्पृष्ट और बद्धस्पृष्ट- ये तीनों शब्द इन्द्रिय और विषय के मध्य सम्बन्ध की सामान्यता, प्रगाढ़ता व प्रगाढ़तरता को व्यक्त करते हैं। स्पृष्ट और प्रविष्ट में अन्तर यह है कि स्पर्श तो शरीर में रेत . लगने की तरह होता है, किन्तु प्रवेश मुख में कौर (यास) जाने की तरह है। इन्द्रियों द्वारा अपने-अपने उपकरण में प्रविष्ट विषयों को ग्रहण करना प्रविष्ट कहलाता है। जैसे श्रोत्रेन्द्रिय प्रविष्ट अर्थात् - 62 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)