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________________ 222222222222333333333333333333333333333333333 - caca cacaca cace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 200000 किन्तु जब प्रशस्त मन वाला भव्य प्राणी उसे मङ्गल रूप में ग्रहण करता है (जानता, ce समझता और वैसा व्यवहार करता है), तभी वह साधु उसके लिए मङ्गलकारक होता है, . और जब कोई मानसिक कलुषता वाला प्राणी उसे मङ्गलरूप में ग्रहण नहीं करता तो उसके : लिए वह साधु मङ्गलकारी सिद्ध नहीं होता, इसी प्रकार शास्त्र भी (मङ्गलकारी या अमङ्गलकारी), व होता है- यह भाव है। a (हरिभद्रीय वृत्तिः) आह-यद्येवममङ्गलमपि मालबुद्धेः प्राणिनो मालकार्यकृत्प्राप्नोतीति, तथाहि-यदि कश्चित्काञ्चनमेव काञ्चनतयाऽभिगृह्य प्रवर्तते ततस्तत्फलमासादयति, न पुनरकाञ्चनं, सत्काञ्चनबुद्दया, नाप्यतबुद्धयेति। मालत्रयापान्तरालद्वयमित्वममालमापद्यत इति चेत्, न, अशेषशास्त्रस्यैव तत्त्वतो मालत्वात्, तस्यैव च संपूर्णस्यैव त्रिधा विभक्तत्वात् मोदकवदपान्तरालद्वयाभाव इति।यथा हि मोदकस्य त्रिधा विभक्तस्य अपान्तरालद्वयं नास्ति, एवं प्रकृतशास्त्रस्यापीति भावार्थः।। (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) यदि ऐसी बात है तो अमङ्गल को भी जो प्राणी मङ्गलबुद्धि, से ग्रहण करे तो वह भी मङ्गलकारी माना जाने लगेगा, और ऐसा होना अभीष्ट नहीं होगा। a (उत्तर-) ऐसा नहीं। वह (अमङ्गलकारी वस्तु या आचरण) तो स्वरूप से ही अमङ्गलकारी , है।जो स्वरूप से मङ्गलकारी हो, वही (प्रयोक्ता व व्यवहारकर्ता की ओर से) मङ्गल-बुद्धि की & अपेक्षा रखते हुए (विघ्ननाश आदि) मङ्गल कार्य का संपादन करेगा (अन्य नहीं)। जैसे कोई स्वर्ण को स्वर्ण की बुद्धि से ग्रहण कर प्रवृत्त होता है, तब उसे स्वर्ण वाला फल प्राप्त होता है, किन्तु जो स्वर्ण नहीं है (लोहा, पीतल आदि), उसे कोई अच्छे (निर्दोष) स्वर्ण की बुद्धि से ग्रहण करे या जो वह पदार्थ जैसा नहीं है, उस रूप में ग्रहण करे तो उस पदार्थ से वह स्वर्ण वाला (दरिद्रता-नाश आदि) फल नहीं प्राप्त होगा। (शंका-) तीन मङ्गलों के मध्य -जो खाली दो समय है (अर्थात् आदि मङ्गल व मध्य मङ्गल के मध्य, और मध्य मङ्गल व अंतिम मङ्गल के मध्य, यहां मङ्गल तो हैं नहीं, इसलिए) वहां अमङ्गलता होने लगेगी? (उत्तर-) ऐसा नहीं है। तात्त्विक रूप से (वस्तुतः) तो समस्त ca शास्त्र ही मङ्गल रूप है, उस सम्पूर्ण शास्त्र को ही तीन विभागों में (काल्पनिक रूप से). विभक्त कर दिया गया है, वस्तुतः तो एक (बंधे) मोदक की तरह उसका कोई अन्तराल भाग (r)(r)(r)(r)caepeca(r)080000000000..
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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