________________ aanemance नियुक्ति गाया-31 900909009999 222222222222222222222222222222222222 कल्पना करें कि निगोद के अनन्त जीव पहले समय में ही सूक्ष्म शरीर के योग्य पुद्गलों a का सर्वबंध करें, दूसरे में देशबंध करें, तीसरे समय में शरीरपरिमाण क्षेत्र रोके, ठीक उतने ही क्षेत्र में स्थित पुद्गल जघन्य अवधिज्ञान का विषय हो सकते हैं। पहले और दूसरे समय का बना हुआ शरीर " a अतिसूक्ष्म होने के कारण अवधिज्ञान का जघन्य विषय नहीं कहा गया है तथा चौथे समय में वह शरीर अपेक्षाकृत स्थूल हो जाता है, इसीलिए शास्त्रकार ने तीसरे समय के आहारक निगोदीय शरीर का ही उल्लेख किया है। यहां यह ज्ञातव्य है कि प्रथम, द्वितीय व तृतीय समय में आहारक रूप में जो जीव है, वह पनक का ही है, महामत्स्य का नहीं। अतः जो अन्य व्याख्याता तीसरे समय में ही पनक जीव की उत्पत्ति मानते हैं, उनका यहां खण्डन किया गया है। - आत्मा असंख्यात प्रदेशी है। उन प्रदेशों का संकोच एवं विस्तार कार्मणयोग से होता है। ये / प्रदेश इतने संकुचित हो जाते है कि वे सूक्ष्म निगोदीय जीव के शरीर में रह सकते हैं तथा जब विस्तार 4 को प्राप्त होते हैं तो पूरे लोकाकाश को व्याप्त कर सकते हैं। जब आत्मा कार्मण शरीर छोड़कर सिद्धत्व को प्राप्त कर लेती है, तब उन प्रदेशों में संकोच & या विस्तार नहीं होता, क्योंकि कार्मण शरीर के अभाव में कार्मण-योग नहीं हो सकता है। आत्म प्रदेशों में संकोच तथा विस्तार सशरीर जीवों में ही होता है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) एवं तावत् जघन्यमवधिक्षेत्रमुक्तम्, इदानीं उत्कृष्टमभिधातुकाम आह (नियुक्तिः) सवबहुअगणिजीवा, निरन्तरं जत्तियं भरिज्जासु। खित्तं सवदिसागं, परमोही खित्त निद्दिट्ठो // 31 // [संस्कृतच्ययाः-सर्वबहुअग्निजीवाः निरन्तरं यावद् अभाषुः ।क्षेत्रं सर्वदिक्कं परमावधिः क्षेत्रनिर्दिष्टः // ] (वृत्ति-हिन्दी-) इस प्रकार, अब तक जघन्य अविध-क्षेत्र का कथन हुआ, अब, उत्कृष्ट अवधि-क्षेत्र का करने की इच्छा से (आगे की गाथा) कह रहे हैं __(31) (नियुक्ति-अर्थ-) सर्वाधिक अग्निकायिक जीव निरन्तरता के साथ सब दिशाओं में " जितने क्षेत्र को भर दें (व्याप्त करें), उतना परमावधि का क्षेत्र कहा गया है। -77777778888888888888888888888888888888888888 @ @ @ @cR@ @cR@ @R@ @ @cR@ @ 185 /