________________ - 233333333333333333333333333333333333333333333 Acacacacecace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 2000000 (1) आनुगामिक (अनुगामी)- जो अवधिज्ञान अपने उत्पत्तिक्षेत्र को छोड़ कर दूसरे स्थान पर चले जाने पर भी अवधिज्ञानी के साथ विद्यमान रहता है, उसे आनुगमिक कहते हैं, अर्थात् जिस स्थान पर जिस जीव में यह अवधिज्ञान प्रकट होता है, वह जीव उस स्थान के चारों संख्यात& असंख्यात योजन तक देखता है, इसी प्रकार उस जीव के दूसरे स्थान पर चले जाने पर भी वह उतने " क्षेत्र को जानता-देखता है, वह आनुगामिक कहलाता है। (2) अनानुगामिक (अननुगामी)-जो साथ, न चले, किन्तु जिस स्थान पर अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ, उसी स्थान में स्थित होकर पदार्थों को जाने, . & उत्पत्तिस्थान को छोड़ देने पर न जाने, वह अनानुगामी कहलाता है। तात्पर्य यह है कि अपने ही , स्थान पर अवस्थित रहने वाला अवधिज्ञान अनानुगामी कहलाता है। (3) वर्धमान-जो अवधिनान & उत्पत्ति के समय अल्प विषय वाला हो और परिणामविशुद्धि के साथ प्रशस्त, प्रशस्ततर अध्यवसाय ca के कारण द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा को लिए बढ़े अर्थात् अधिकाधिक विषय वाला हो , जाता है, वह 'वर्धमान' कहलाता है। (4) हीयमान-जो अवधिज्ञान उत्पत्ति के समय अधिक विषय cm वाला होने पर भी परिणामों की अशुद्धि के कारण क्रमशः अल्प, अल्पतर और अल्पतम विषय वाला , हो जाए, उसे हीयमान कहते हैं। (5) प्रतिपाती- इसका अर्थ पतन होना. गिरना या समाप्त हो जाना, है। जगमगाते दीपक के वायु के झोकें से एकाएक बुझ जाने के समान जो अवधिज्ञान सहसा लुप्त हो / ca जाता है। उसे प्रतिपाती कहते हैं। यह अवधिज्ञान जीवन के किसी भी क्षण में उत्पन्न और लुप्त भी हो " & सकता है। (6) अप्रतिपाती- जिस अवधिज्ञान का स्वभाव पतनशील नहीं है, उसे अप्रतिपाती कहते . हैं। केवल-ज्ञान होने पर भी अप्रतिपाती अवधिज्ञान नहीं जाता, क्योंकि वहां अवधिज्ञानावरण का / & उदय नहीं होता, जिससे जाए, अपितु वह केवलज्ञान में समाविष्ट हो जाता है। केवलज्ञान के समक्ष " & उसकी सत्ता उसी तरह अकिंचित्कर है जैसे कि सूर्य के समक्ष दीपक का प्रकाश। यह प्रतिपाती अवधिज्ञान बारहवें गुणस्थानवी जीवों के अंतिम समय में होता है और उसके बाद तेरहवें गुणस्थान : के प्राप्त होने के प्रथम समय के साथ केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है। इस अप्रतिपाती अवधिज्ञान को 2 a परमावधिज्ञान भी कहते हैं। हीयमान और प्रतिपाती में अन्तर यह है कि हीयमान का तो पूर्वापेक्षया 1 धीरे-धीरे ह्रास हो जाता है, जबकि प्रतिपाती ज्ञान दीपक की तरह एक ही क्षण में नष्ट हो जाता है। (7) अवस्थित- जो अवधिज्ञान जन्मान्तर होने पर भी आत्मा में अवस्थित रहता है या केवलज्ञान की , & उत्पत्तिपर्यन्त ठहरता है, वह अवस्थित अवधिज्ञान कहलाता है। (8) अनवस्थित-जल की तरंग के समान जो अवधिज्ञान कभी घटता है, कभी बढ़ता है, कभी आविर्भूत हो जाता है और कभी तिरोहित, हो जाता है, उसे अनवस्थित कहते हैं। ये दोनों भेद प्रायः प्रतिपाती और अप्रतिपाती के समान लक्षण & वाले हैं, किन्तु नाममात्र का भेद होने से दोनों को अपेक्षाकृत पृथक्-पृथक् बताया गया है। नारकों, तथा चारों जाति के देवों का अवधिज्ञान आनुगामिक, अप्रतिपाती और अवस्थित होता है।तिर्यश्चपंचेन्द्रियों और मनुष्यों का अवधिज्ञान पूर्वोक्त आठ ही प्रकार का होता है। - 25680(r)cr(r)(r)(r)(r)(r)(r)ce@2008ceone