________________ 222222222222222222222222222222 -cacacacaca cace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000 / अर्थात् अवधि के विषयभूत क्षेत्र का परिमाण (कितना है- इसे) बताना चाहिए। इसी प्रकार | ca संस्थान- (अर्थात् अवधि के आकार) का कथन करना चाहिए। अथवा 'अर्थ के कारण है a (अर्थात् अर्थ की संगति बैठाने के लिए) विभक्ति परिणमित होती है' इस नियम के अनुरूप, क्षेत्रपरिमाण व संस्थान में द्वितीया ही है, ऐसा मानें। फलस्वरूप अर्थ होगा- अवधि के / जघन्य, मध्यम व उत्कृष्ट भेदों से युक्त क्षेत्रप्रमाण को कहें, इसी प्रकार संस्थान के विषय को ? 1 कहें। अब ‘आनुगामुक' यह द्वार है। अनुगमनशील को आनुगामुक कहते हैं। इसका विपक्ष (अननुगामक) के कथन के साथ निरूपण करना चाहिए। जिस प्रकार (उत्तराध्ययन-12/0 a 6 में प्रयुक्त') 'कयरे आगच्छइ' (कतरः आगच्छति) यहां 'कयरे' शब्द प्रथमान्त है, उसी . * प्रकार 'आणुगामिए' यह (प्राकृत पद सप्तमी का नहीं, अपितु) प्रथमान्त पद है, इत्यादि। और 'अवस्थित' अवधि का कथन करना चाहिए, अर्थात् द्रव्य आदि में अप्रतिपाती रहता : a हुआ यह अवधिज्ञान उपयोग व लब्धि की अपेक्षा से कितने समय तक स्थित रहता है (यह / बताना चाहिए)।और 'चल' अवधि का कथन करना चाहिए। 'चल' से तात्पर्य है- अनवस्थित, वह या तो वर्द्धमान (बढ़ता हुआ) होगा या क्षीयमाण (घटता हुआ) होगा। इसके अतिरिक्त, , a 'तीव्र-मन्द' द्वार है, अर्थात् अवधि के तीव्र, मन्द व मध्यम भेदों का निरूपण करना चाहिए। a इनमें तीव्र विशुद्ध होता है, मन्द विशुद्ध होता है और मध्यम उभयात्मक (तीव्र-मन्दात्मक) होता है। अब प्रतिपात-उत्पाद द्वार है, अर्थात् एक समय में द्रव्य आदि की अपेक्षा से अवधि, के प्रतिपात व उत्पत्ति (-इन दोनों) का कथन करना चाहिए // 27 // a (हरिभद्रीय वृत्तिः) द्वितीयगाथाव्याख्या-तथा 'ज्ञानदर्शनविभङ्गा' वक्तव्याः।किमत्र ज्ञानम्? किं वा " दर्शनम्? को वा विभङ्गः? परस्परतश्चामीषाम् अल्पबहुत्वं चिन्त्यमिति।तथा 'देशद्वारम्', , कस्य देशविषयः सर्वविषयो वाऽवधिर्भवतीति वक्तव्यम्। क्षेत्रद्वारम्', क्षेत्रविषयोऽवधिर्वक्तव्यः, . संबद्धासंबद्धसंख्येया संख्येयापान्तराललक्षणक्षेत्रावधिद्वारेणेत्यर्थः। गतिरिति च' अत्र इतिशब्द : आद्यर्थे द्रष्टव्यः, ततश्च गत्यादि च द्वारजालमवधौ वक्तव्यमिति तथा प्राप्तीनुयोगच कर्तव्यः, . * अनुयोगोऽन्वाख्यानम् / एवमनेन प्रकारेण एता' अनन्तरोक्ताः 'प्रतिपत्तयः' प्रतिपादनानि, . व प्रतिपत्तयः परिछित्तय इत्यर्थः। ततश्चावधिप्रकृतय एव प्रतिपत्तिहेतुत्वात् प्रतिपत्तय इत्युच्यन्ते- " इति गाथाद्वयसमुदायार्थः RCI 223200 - 178 178 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)CRO900 ..