________________ RRcacaceae श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 900999902 222222222238232233333333333333222222222222222 (हरिभद्रीय वृत्तिः) (गमनिका-) अत्र पुनः प्रकृते अधिकारः श्रुतज्ञानेन, यतः श्रुतेनैव 'शेषाणाम्' " मत्यादिज्ञानानाम् आत्मनोऽपि च 'अनुयोगः' अन्वाख्यानम्, क्रियत इति वाक्यशेषः, स्वपरप्रकाशकत्वात्तस्य, प्रदीपदृष्टान्तश्चात्र द्रष्टव्य इति गाथार्थः // 79 // [इति पीठिकाविवरणं समाप्तम्] (वृत्ति-हिन्दी-) यहां तो वर्तमान में 'श्रुतज्ञान' का ही अधिकार (प्रकरण) है। इसमें कारण यह है कि श्रुतज्ञान स्व-परप्रकाशक है, अतः श्रुतज्ञान के द्वारा ही शेष मति आदि ज्ञानों का तथा स्वयं (श्रुतज्ञान) का, अनुयोग यानी निरूपण, 'किया जाता है' -इस कथन से वाक्य पूर्ण होता है। यहां प्रदीप का दृष्टान्त (ध्यान में रखने योग्य) है (जिसके आधार पर , श्रुतज्ञान की स्व-परप्रकाशकता को समझना चाहिए)। विशेषार्थ अभी तक पांचों ज्ञानों का निरूपण किया गया। ये पांचों ही ज्ञान 'नन्दी' अर्थात् मङ्गल रूप & हैं। नियुक्तिकार ने क्रम से पांचों ज्ञानों का सविस्तार निरूपण कर 'मङ्गलमयता' की दृढ़ नींव पर इस ग्रन्थ का विशाल भवन खड़ा किया है। किन्तु नियुक्ति' व्याख्या रूप होती है, इसलिए उसका सीधा , सम्बन्ध आगम या 'श्रुत' से है। श्रुत के अन्तर्गत शेष ज्ञान भी व्याख्यायित होते हैं। इस दृष्टि से , नियुक्तिकार का यह कथन है कि यह प्रकरण या विषयवस्तु वस्तुतः श्रुतज्ञान से ही सम्बन्धित है, " अतः ‘श्रुतज्ञान' का प्रकरण ही अधिकृत है। यह श्रुतज्ञान इतना व्यापक है कि इसके अन्तर्गत . & श्रुतज्ञान का तो निरूपण अभीष्ट है ही, अन्य ज्ञानों पर भी चर्चा की जाती है। इसके आगे नियुक्तिकार , & श्रुतज्ञान की नियुक्ति का प्रतिपादन करने जा रहे हैं, जो एक स्वतन्त्र विषय है। यहां तक पांच ज्ञानों , का निरूपण हुआ, जिसे इस ग्रन्थ की पूर्वपीठिका यानी भूमिका या प्रस्तावना भाग के रूप में , जानना चाहिए। इस तरह ज्ञानपञ्चक विवरण या इस ग्रन्थ की पूर्वपीठिका यहां सम्पन्न हो जाती है। [॥ज्ञानपञ्चक (नन्दी)-व्याख्यान रूपी पूर्वपीठिका समाप्त // ] 3333333888888888.777 304 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)00