SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 319
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ aacacacacea श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 9000000 . &&&&&&&&& 332222223333333333333333333333333333333333333 अद्भुत क्षमता हो जाती है। संभिन्न स्रोत या संभिन्न श्रोत्र (संभिन्न श्रोत) -ये दोनों नाम मिलते हैं। c& संभिन्न यानी पूर्ण। श्रोत्र का अर्थ सुनने की क्षमता / स्रोत यानी ज्ञान की स्रोत इन्द्रियां। लब्धिधारी , & कान से ही नहीं, शरीर के किसी भी भाग से सुन सकता है। इतना ही नहीं, उसकी कोई भी इन्द्रिय , दूसरी इन्द्रिय का काम कर सकती है। कान देख भी सकते हैं, आंखें सुन भी सकती हैं। कान देख भी। र सकते हैं, आंखें सुन भी सकती हैं। दूसरा अर्थ यह भी किया गया है कि विभिन्न शब्दों को-जो परस्पर मिले हुए हों, उन्हें पृथक्-पृथक् पहचान लेने की शक्ति आ जाती है। व्याख्याकारों के अनुसार, a चक्रवर्ती की सेना का सामूहिक शोर (कोलाहल) होता है, उसमें शंख, ढोल, तुरही आदि अनेक 1 सैनिक वाद्यों का घोष मिला रहता है, लब्धिधारी इन सभी को एक साथ सुनता है और यह पहचान , लेता है कि यह शंख का शब्द है, यह तुरही का। ऋजुमति लब्धि मनःपर्यज्ञान का रूप ही है, इसमें विपुलमति की तुलना में कुछ अस्पष्ट-अनिर्दोष मनःपर्यय ज्ञान होता है। सर्वौषधि में लब्धिधारी के सभी शरीरावयव-(विष्ठा, मूत्र, केश, नख आदि), व्याधि आदि को दूर कर सकते हैं। ___ चारणलब्धि में कहीं भी जाने-आने की चमत्कारपूर्ण शक्ति निहित रहती है। विद्या यानी.. 6 ज्ञान या आगम-विशेष। उस विशिष्टज्ञान-सहित गमनागमन शक्ति को विद्याचारण लब्धि कहा जाता ल है। विधिपूर्वक उत्कृष्ट बेले-बेले की तपस्या से यह लब्धि प्राप्त होती है। विद्या, ज्ञान या आगम से इसे , व लब्धि का क्या सम्बन्ध है- इसे नन्दीसूत्र की मलयगिरिकृत वृत्ति में कुछ स्पष्ट किया गया है- “जो & उत्तरोत्तर अपूर्व-अपूर्व अर्थ के प्रतिपादक विशिष्ट श्रुत का अवगाहन करते हैं, और श्रुत के सामर्थ्य से - तीव्र-तीव्रतर शुभ भावना का आरोहण करते हैं, वे अप्रमत्त मुनि ऋद्धियां प्राप्त करते हैं। जो श्रुतसागर, का अवगाहन करते हैं, उन्हें अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, कोष्ठ आदि बुद्धि, चारणलब्धि, वैक्रिय लब्धि, सर्वोषधि लब्धि आदि लब्धियां अप्रमत्तता के गुण से प्राप्त होती हैं, तथा मानसिक, वाचिक व & शारीरिक बल भी प्रादुर्भूत होते हैं।' कल्पना की जा सकती है कि ऋद्धिधारी के ज्ञान में आगमोक्त , व लोक-स्वरूप, समुद्र-द्वीपादि रचना, यत्र-तत्र पर्वत द्वीपादि में अकृत्रिम चैत्यालय अन्य अनेक पावन " & स्थान, वहां जाने का सुस्पष्ट मार्ग-इन सब का ज्ञान प्रतिभासित होता रहता है, जिसके बल पर वह , गमनागमन कर सकता है और वह भी अतिशीघ्र / व्याख्या के अनुसार वह चैत्यों की वन्दना करता है है। इस कथन के पीछे यह तथ्य स्पष्ट है कि वह सिर्फ सैर सपाटे आदि के लिए यह यात्रा नहीं करता, है अपितु वहां शुभ भावनाओं की भूमिका रहती है। ___जंघाचारण लब्धि की विशेषता यह है कि इसके द्वारा सूर्य की किरणों का आश्रय लेकर, या | मकड़ी के जाले के पतले रेशों का ही सहारा लेकर जंघा से आकाश में विचरण किया जा सकता है। | 698cce@cr@&00000000 aaaaa - 278
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy