________________ -Ratnance .222222222222222222222232223333333222222222222 नियुक्ति गाथा-54 विशेषार्थ प्रतिपाती का अर्थ है-गिरने वाला अथवा पतित होने वाला। पतन तीन प्रकार से होता है। a (1) सम्यक्त्व से (2) चारित्र से (3) उत्पन्न हुए विशिष्ट ज्ञान से। प्रतिपाती अवधिज्ञान जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग को और उत्कृष्टतया सम्पूर्ण लोक तक को विषय करके पतन को प्राप्त हो जाता है। शेष मध्यम प्रतिपाती के अनेक प्रकार हैं। जैसे तेल एवं वर्तिका के होते हुए भी वायु के झोंके से ca दीपक एकदम बुझ जाता है, इसी प्रकार प्रतिपाती अवधिज्ञान का ह्रास धीरे-धीरे नहीं होता अपितु ca वह किसी भी क्षण एकदम लुप्त हो जाता है। जिस ज्ञान से ज्ञाता अलोक के एक भी आकाश-प्रदेश को जानता है- देखता है, वह ce अप्रतिपाती अर्थात् न गिरनेवाला अवधिज्ञान कहलाता है। यह अप्रतिपाती अवधिज्ञान का स्वरूप है। a जैसे कोई महापराक्रमी पुरुष अपने समस्त शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके निष्कंटक राज्य करता है, a ठीक इसी प्रकार अप्रतिपाती अवधिज्ञानी केवलज्ञानरूप राज्य-श्री को अवश्य प्राप्त करके त्रिलोकीनाथ सर्वज्ञ बन जाता है। यह ज्ञान बारहवें गुणस्थान के अन्त तक स्थायी रहता है, क्योंकि तेरहवें गुणस्थान के प्रथम समय में केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है। विषयवस्तु के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि प्रतिपाती अवधिज्ञान देशावधि है क्योंकि देशावधि का उत्कृष्ट विषय सम्पूर्ण लोक है। जो अलोक के एक प्रदेश को भी देख लेता है, वह प्रतिपाती नहीं होता। परमावधि अलोक में लोक जितने असंख्य खण्डों को जान सकता है। सर्वावधि उससे भी अधिक जानता है, इसलिए परमावधि और सर्वावधि दोनों अप्रतिपाती हैं। c. धवला के अनुसार प्रतिपाती अवधिज्ञान उत्पन्न होकर निर्मूल नष्ट हो जाता है। अप्रतिपाती अवधिज्ञान & केवलज्ञान उत्पन्न होने पर ही विनष्ट होता है। अप्रतिपाती के विषय में हरिभद्रसूरि का यही मत है। C (हरिभद्रीय वृत्तिः) उक्त क्षेत्रपरिमाणद्वारम् / साम्प्रतं संस्थानद्वारं व्याचिख्यासयेदमाह (नियुक्तिः) थिबुयायार जहण्णो, वट्टो उक्कोसमायओ किंची। अजहण्णमणुक्कोसो य खित्तओ णेगसंठाणो // 14 // - [संस्कृतच्छायाः-स्तिबुकाकारो जघन्यः वृत्तः, उत्कृष्ट आयतः किञ्चित् / अजघन्य-अनुत्कृष्टश्च | क्षेत्रतोऽबेकसंस्थानः॥] (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 237 -