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________________ 333333333333333333333333333333333333333222333 aaaaaaaa श्रीआवश्यकवियक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) ROOPOOR (वृत्ति-हिन्दी-) अब माल के विषय में कथन रहे हैं। चूंकि श्रेयस्कर कार्यों में | अनेक विघ्न होते हैं। कहा भी है महापुरुषों के श्रेयस्कर कार्यों में (भी) अनेक विघ्न होते (देखे जाते) हैं, तब जो, अकल्याणकारी कार्यों में प्रवृत्त हों तो उनके लिए विघ्ननायक (बड़े-बड़े विघ्न) कहीं भी, पगपग पर उपस्थित होंगे ही। (नियुक्ति रूप यह) आवश्यक-अनुयोग अपवर्ग (मोक्ष) की प्राप्ति में बीज (प्रधान कारण जैसा) होने से श्रेयस्कर है ही, इसलिए (आवश्यक-अनुयोग के) प्रारम्भ में है ca विघ्नविनायक आदि की शांति हेतु वह (मङ्गल) किया जाता है। शास्त्र के प्रारम्भ में, मध्य में , और अन्त में भी मङ्गल करना अभीष्ट (अपेक्षित) माना गया है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) सर्वमेवेदं शास्त्रं मालमित्येतावदेवास्तु, मालत्रयाभ्युपगमस्त्वयुक्तः, प्रयोजनाभावात् , & इति चेत् न, प्रयोजनाभावस्यासिद्धत्वात्।तथा च कथं बुबाम विनेया विवक्षितशास्त्रार्थस्याविघ्नेन पारं गच्छेयुः? अतोऽर्थमादिमङ्गलोपन्यासः, तथा स एव कथं नु वाम तेषां स्थिरः / स्याद्? इत्यतोऽर्थ मध्यमङ्गलस्य, स एव च कथं नुनाम शिष्यप्रशिष्यादिवंशस्य अविछित्त्या : उपकारकः स्याद्? इत्यतोऽयं चरममालस्य, इत्यतो हेतोरसिद्धता इति। (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) यह समस्त शास्त्र ही मङ्गल रूप है, तो मात्र शास्त्र का कथन ही होना चाहिए, (आदि-मङ्गल, मध्यमङ्गल व अन्त मङ्गल -इन) तीन मङ्गलों का , & कथन (मङ्गलाचरण) युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि वे मङ्गल निष्प्रयोजन हो जाते हैं। (उत्तर-). ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि उनकी निष्प्रयोजनता सिद्ध नहीं है। दूसरी बात (मङ्गलाचरण : के अभाव में) शिष्य विवक्षित शास्त्र को किस प्रकार निर्विघ्नता पूर्वक पार कर पाएंगे? : (उनका शास्त्राध्ययन किस प्रकार निर्विघ्नता से सम्पन्न हो पाएगा?) इस प्रयोजन की। ca सिद्धि हेतु आदि- मङ्गल का उपन्यास करणीय है। वह शास्त्र किस प्रकार उन शिष्यों में , & स्थिरता को प्राप्त हो -इस प्रयोजन की सिद्धि हेतु मध्यमङ्गल करणीय होता है, और वह र a शास्त्र शिष्य-प्रशिष्य आदि वंश-परम्परा के लिए किस प्रकार निरन्तर, अविच्छिन्न रूप से , उपकारक हो -इस प्रयोजन की सिद्धि हेतु अन्तमङ्गल करणीय होता है, इसलिए (मङ्गलों : * की निष्प्रयोजनता को सिद्ध करने के लिए दिया गया) हेतु सिद्ध नहीं होता (वह असिद्ध व . व्यर्थ हो जाता है)। - 10 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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