________________ 222222222222222222222222222232322 - cacacacacacaa श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 90900900900(हरिभद्रीय वृत्तिः) आह-उक्तप्रमाणं विषयमुलक्य कस्माचक्षुरादीनि रूपादिकमर्थन गृह्णन्तीति? उच्यते, " सामर्थ्याभावात्, द्वादशभ्यो नवभ्यश्च योजनेभ्यः परतः समागतानां शब्दादिद्रव्याणां तथाविधपरिणामाभावाच ।मनसस्तुन क्षेत्रतो विषयपरिमाणमस्ति, पुद्गलमात्रनिबन्धनाभावात्, इह यत् पुद्गलमात्रनिबन्धनियतं न भवति, न तस्य विषयपरिमाणमस्ति, यथा केवलज्ञानस्य। त यस्य च विषयपरिमाणमस्ति, तत्पुद्गलमात्रनिबन्धनियतं दृष्टम्, यथाऽऽवधिज्ञानं & मनःपर्यायज्ञानं वेति गाथासमासार्थः // c. (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) क्या कारण है कि नेत्र आदि इन्द्रियां विषय-योग्य देश से सम्बन्धित पूर्वोक्त प्रमाण (सीमा-मान) का उल्लंघन कर रूप आदि अर्थ को ग्रहण नहीं कर " a पातीं? उत्तर दे रहे हैं- (एक तो), उन इन्द्रियों की वैसी सामर्थ्य नहीं होती, दूसरे, बारह या " & नौ योजनों से परे (दूर) स्थित किसी स्थान से आए हुए शब्द आदि द्रव्यों का (इन्द्रिय-ज्ञेय , होने का) वैसा परिणाम नहीं होता। किन्तु मन का क्षेत्र-सम्बन्धी विषय-गत परिमाण (मर्यादित क्षेत्र) नहीं होता, क्योंकि वह (विषय की दृष्टि से) मात्र पुद्गल (मूर्त वस्तु) तक ही , सम्बद्ध-सीमित नहीं है। जिस भी किसी (ज्ञान-साधन) का, मात्र पुद्गल से सम्बद्ध होना, नियत-सीमित नहीं होता, उसका विषय-परिमाण (परिमित-सीमित विषय) नहीं होता, जैसे , ca केवल ज्ञान (इसका विषय अपरिमित है, मूर्त ही नहीं, अपितु अमूर्त द्रव्य भी उसके विषय " क होते हैं, अतः उसके क्षेत्रादि की मर्यादा नहीं होती ) जिसका विषय-परिमाण होता है (अर्थात् " जो भी सीमित विषय वाला होता है), वह मात्र पौद्गलिक सम्बन्ध तक नियत (सीमित) होता है, जैसे- अवधिज्ञान या मनःपर्याय ज्ञान (क्योंकि ये पौद्गलिक द्रव्य को ही विषय , करने वाले होते हैं, अतः उनका ज्ञान मर्यादित होता है)। यहां तक गाथा का संक्षिप्त अर्थ हुआ। (हरिभद्रीय वृत्तिः) साम्प्रतं यदुक्तमासीत् यथा “नयनमनसोरप्राप्तकारित्वं 'पुढे सुणेइ सई' इत्यत्र वक्ष्यामः", तदुच्यते / नयनं योग्यदेशावस्थिताप्राप्तविषयपरिच्छेदकम्, प्राप्तिनिबन्धनतत्कृतानुग्रहोपघातशून्यत्वात्, मनोवत्, स्पर्शनेन्द्रियं विपक्ष इति। आह-जलघृतवनस्पत्यालोकनेष्वनुग्रहसद्भावात् सूर्याद्यालोकनेषु चोपघातसद्भावात् असिद्धो हेतुः, मनसोऽपि प्राप्तविषयपरिच्छेदकत्वात्साध्यविकलो दृष्टान्तः, तथा च लोके वक्तारो .833333333333333333333333333338888888888888883 / 6. 333333321 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)ce@2009ne