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________________ R33333333333333333333333333333333333333333333 ca cace cace cece श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 200000 प्रतिस्रोत और उभयपद / (1) जिनकी बुद्धि ग्रन्थ के प्रथम पद के अर्थ को दूसरे से सुन कर अन्तिम * पद तक के सम्पूर्ण ग्रन्थ का विचार (स्मरण) करने में समर्थ अत्यन्त तीव्र होती है, वह अनुस्रोत8 पदानुसारी-बुद्धि कहलाता है। (2) जिनकी बुद्धि अन्तिम पद के अर्थ या ग्रन्थ को दूसरे से सुन कर, .. ca आदि पद तक के अर्थ या ग्रन्थ को स्मरण कर सकने में समर्थ हो, वह प्रतिस्रोत-पदानुसारी बुद्धि " - कहलाता है और (3) जिसकी बुद्धि ग्रन्थ के बीच के अर्थ या पद को दूसरे से जान कर आदि से अन्त र 6 तक के तमाम पद-समूह और उनका प्रतिनियत अर्थ करके सारे ग्रन्थ-समुद्र को पार करने में समर्थ . & असाधारण तीव्र हो, वह उभयपदानुसारी बुद्धि कहलाता है। बीजबुद्धि और पदानुसारी में यही अन्तर & है कि बीजबुद्धि तो एक पद का अर्थ बताने पर अनेक पदों का अर्थ बताने में कुशल होती है, जबकि . & पदानुसारीबुद्धि एक पद को जान कर दूसरे तमाम पदों को जानने में समर्थ होती है। इसी प्रकार मनोबली, वचनबली, कायबली भी एक प्रकार के लब्धिधारी होते हैं। जिसका C निर्मल मन मतिज्ञानावरणीय और वीर्यान्तराय कर्म के अतिशय क्षयोपशम की विशेषता से अंतर्मुहूर्त 4 में सारभूत तत्त्व उद्धृत करके सारे श्रुत-समुद्र में अवगाहन करने में समर्थ हो, वह साधक मनोबलीcm लब्धिधारी कहलाता है। जिसका वचनबल एक अन्तर्मुहूर्त में सारी श्रुतवस्तु को बोलने में समर्थ हो, वह वाग्बली-लब्धिधारी कहलाता है, अथवा पद, वाक्य और अलंकार- सहित वचनों का उच्चारण : ce करते समय जिसकी वाणी का प्रवाह अखण्ड अस्खलित चलता रहे, कंठ में जरा भी रुकावट न आए, " & वह भी वाग्बली कहलाता है। वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम से जिसमें असाधारण कायाबल-योग - प्रगट हो गया हो कि कायोत्सर्ग में चिरकाल तक खड़े रहने पर भी थकावट और बेचैनी न हो, वह कायबलीलब्धिधारी कहलाता है। उदाहरणार्थ- बाहुबली मुनि जैसे एक वर्ष तक कायोत्सर्ग-प्रतिमा 1 धारण करके खड़े रहे थे, वे कायबली थे। इसी प्रकार क्षीरलब्धि, मधुलब्धि, घृतलब्धि और अमृतलब्धि " & वाले भी योगी होते हैं। जिनके पात्र में पड़ा हुआ खराब अन्न भी दूध, मधु, घी और अमृत के रस के . समान बन कर शक्तिवर्द्धक हो जाता है, अथवा वाचिक, शारीरिक, और मानसिक दुःख प्राप्त हुए . आत्माओं को खीर आदि की तरह जो आनन्ददायक होते हैं, वे क्रमशः क्षीरासव, मध्वासव, n c& सर्पिरासव, और अमृतास्रव लब्धि वाले कहलाते हैं। वे दो प्रकार के होते हैं- एक होते हैं, अक्षीण- महानसलब्धिमान और दूसरे होते हैं, अक्षीणमहालयलब्धिधर।असाधारण अन्तराय कर्म के क्षयोपशम , होने से जिनके पात्र में दिया हुआ अल्प आहार भी गौतमस्वामी की तरह अनेकों को दे दिया जाय, 1 & फिर भी समाप्त नहीं होता, वे अक्षीणमहानस-लब्धिधारी कहलाते हैं। जिस परिमित भूमिभाग में - & असंख्यात देव, तिर्यंच और मनुष्य सपरिवार खचाखच भरे हों, बैठने की सुविधा न हो, वहां - * अक्षीणमहालय-लब्धिधारी के उपस्थित होते ही इतनी जगह हो जाती है कि तीर्थंकर के समसवरण " की तरह सभी लोग सुखपूर्वक बैठ सकते हैं। - 282 @BROc @ @ @ @ @ @ @ @ @
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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