________________ aaaacaaca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 099999999 333333333333333333333333333333333333333333333 / समय 'अन्तर्मुहूर्त' होता है, और उत्कृष्ट समय साधिक (कुछ अधिक) 66 हजार सागरोपम & काल होता है। विजय (और वैजयन्त, जयन्त व अपराजित) आदि (चार अनुत्तर विमानों में , से किसी एक) देवलोक में दो बार जाकर (जन्म लेकर), (अर्थात् वहां 33 सागरोपम की . & उत्कृष्ट आयु दो बार भोग कर), या अच्युत देवलोक में तीन बार जाकर उत्पन्न होने वाले , 6 (अर्थात् वहां 22 सागरोपम की उत्कृष्ट आयु तीन बार भोग कर मनुष्य भव में आए तो, CM आभिनिबोधिक ज्ञान की उपलब्धि का) उत्कृष्ट काल, उसके (मध्यवर्ती व अंतिम) मनुष्य ल भव की आयु (के काल) को जोड़ने से, साधिक (66 सागरोपम प्रमाण) होता है। उक्त उत्कृष्ट " a काल से अधिक (उपयोग-लब्धि की) अप्रच्युति हो तो अपवर्ग (मोक्ष) की प्राप्ति होती है -यह " भावार्थ है। नाना जीवों की अपेक्षा से आभिनिबोधिक उपयोगलब्धि का सद्भाव सब काल में " होता है, क्योंकि ऐसा कभी नहीं होता कि लोक में उक्त लब्धिसम्पन्न जीव का अभाव हो। ce विशेषार्थ स्पर्शना व क्षेत्र के स्वरूप के विषय में दिगम्बर परम्परा में एक पृथक् विचार उपलब्ध होता , है। सर्वार्थसिद्धि (1/7) के अनुसार वर्तमान निवास ‘स्पर्शना' है (क्षेत्रं निवासो वर्तमानकालविषयः, - तदेव स्पर्शनं त्रिकाल-गोचरम्)। यहां टीकाकार ने जो मत प्रस्तुत किया है, उसके अनुसार पदार्थ का , & अवगाह-प्रदेश क्षेत्र' है और उस क्षेत्र से जुड़ा (स्पृष्ट) छहों दिशाओं का क्षेत्र ‘स्पर्शना' के अन्तर्गत है। " विशेषावश्यक भाष्य (गाथा-432-433) में भी इसी मत का निरूपण किया गया है। एक आभिनिबोधिकज्ञानी जीव के जो क्षेत्र व स्पर्शना सम्बन्धी निर्देश हैं, उनकी अपेक्षा नाना आभिनिबोधिकज्ञानी जीवों की क्षेत्र-स्पर्शना असंख्येय गुणित हैं क्योंकि उन जीवों की संख्या असंख्यात होती है। - मतिज्ञान के काल का निरूपण उपयोग व लब्धि के भेदों को ध्यान में रखकर करणीय है। एक जीव का उपयोग-काल जघन्यतः और उत्कृष्टतया अन्तर्मुहूर्त ही होता है, उसके बाद अन्य : उपयोग में जाना निश्चित है। सर्वलोकवर्ती नाना आभिनिबोधिक ज्ञानियों का भी जघन्य व उत्कृष्ट " & काल अन्तर्मुहूर्त ही है, एक जीव की अपेक्षा यह अन्तर्मुहूर्त कुछ बड़ा होता है। अब लब्धि की दृष्टि से . & विचार करें। सम्बद्ध ज्ञानावरण क्षयोपशम रूप सम्यक्त्व को प्राप्त किये हुए जीव की आभिनिबोधिक >> | ज्ञान-लब्धि का जघन्य काल (एक जीव की दृष्टि से) अन्तर्मुहूर्त ही है, क्योंकि उसके बाद या तो वह | -3333333333888888888888888888888888888888888880 - 134