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________________ ARRRRRRRRRce 99999999999 232323222222222222222223333333333333333333333 नियुक्ति-गाथा-13-15 विशेषार्थ सम्यक्त्वी जीव की गति-आगति के नियमों के अनुरूप क्षेत्र द्वार-सम्बन्धी निरूपण को यहां स्पष्ट किया गया है। सामान्यतः नारकीय जीव मनुष्यों व तिर्यंचों में जाते हैं, पुनः नरक और , 6 देवगति में नहीं। इनमें सम्यग्दृष्टि नारकी मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी सम्यक्त्व-वमन करने के बाद ही नेरक गति में जाता है (किन्तु सम्यक्त्व मोहनीय की उद्धवेलना करने वाला सम्यग्दृष्टि चारों गतियों में जा सकता है। उद्वेलना यानी यथाप्रवृत्त आदि तीन करणों के 4 बिना ही किसी प्रकृति को अन्य प्रकृति में परिणमित करना / सम्यक्त्व मोहनीय की उद्वेलना अर्थात् , & इस प्रकृति के दलिकों को मिथ्यात्व मोहनीय रूप में परिणमाना)। सातवें नरक में आयुष्य का बन्ध >> पहले गुणस्थान में करते हैं, अन्य गुणस्थानों से तद्योग्य अध्यवसाय का अभाव होने से बन्ध नहीं करते हैं। सातवें नरक के जीव में मनुष्य गति प्रायोग्य बन्ध के अनुकूल परिणाम सम्भव नहीं हैं, इसलिए मनुष्यायु नहीं, बंधती, मात्र तिर्यंचायु बांधते हैं। (हरिभद्रीय वृत्तिः) _ 'स्पर्शनाद्वारम्' इदानीम् / इह यत्रावगाहरतत् क्षेत्रमुच्यते, स्पर्शना तु ततोऽतिरिक्ता , & अवगन्तव्या, यथेह परमाणोरेकप्रदेश क्षेत्रं सप्तप्रदेशा च स्पर्शनेति।तथा 'कालद्वारम्', तत्रोपयोगमङ्गीकृत्य एकस्यानेकेषां चान्तर्मुहूर्त्तमात्र एव कालो भवति जघन्यत उत्कृष्टतश्च। तथा तल्लब्धिमङ्गीकृत्य एकस्य जघन्येनान्तर्मुहूर्तमेव, उत्कृष्टतस्तु षट्षष्टिसागरो पमाण्यधिकानीति।वारद्वयं विजयादिषु गतस्य अच्युते वा वारत्रयमिति, नरभवकालाभ्यधिक व इति।तत ऊर्ध्वमप्रच्युतेनापवर्गप्राप्तिरेव भवतीति भावार्थः। नानाजीवापेक्षया तु सर्वकाल एवेति, a न यस्मादाभिनिबोधिकलब्धिमच्छून्यो लोक इति। (वृत्ति-हिन्दी-) अब (3) स्पर्शना द्वार का निरूपण किया जा रहा है। यहां क्षेत्र' " 4 उसे कहा गया है जहां जीवादि का अवगाह होता है। स्पर्शना तो उस क्षेत्र से कुछ अधिक >> & होती है- ऐसा जानना चाहिए। उदाहरणार्थ- परमाणु का क्षेत्र एक प्रदेश होता है, किन्तु . उसकी स्पर्शना (चार दिशाएं, ऊंचे, नीचे, स्वयं के अवगाह का क्षेत्र -इन सबका समुदित , रूप) 'सप्तप्रदेशात्मक' होती है। (4) अब काल द्वार का निरूपण किया जा रहा है- यहां / a 'उपयोग' को दृष्टि में रखें तो एक जीव के और अनेक जीवों के भी जघन्य या उत्कृष्ट 1 . अन्तर्मुहूर्त समय ही होता है, और उपयोग-लब्धि को दृष्टि में रखें तो एक जीव के जघन्य (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)ce@90090@ce@@ 133
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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