________________ 000000000 -233222222222222333333333333333333333333333333 नियुक्ति-गाथा-16 | जानता व देखता है। और उन्हीं भावों को विपुलमति अढ़ाई अंगुल अधिक विपुल, विशुद्ध और | ca निर्मलतर तिमिर रहित क्षेत्र को जानता व देखता है। (3) काल से- ऋजुमति जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग को और उत्कृष्ट भी पल्योपम, के असंख्यातवें भाग भूत और भविष्यत् काल को जानता व देखता है। उसी काल को विपुलमति , & उससे कुछ अधिक, विपुल, विशुद्ध और वितिमिर अर्थात् सुस्पष्ट जानता व देखता है। (4) भाव से- ऋजुमति अनन्त भावों को जानता व देखता है, परन्तु सब भावों के अनन्तवें / भाग को ही जानता व देखता है। उन्हीं भावों को विपुलमति कुछ अधिक, विपुल, विशुद्ध और निर्मल रूप से जानता व देखता है। . a (हरिभद्रीय वृत्तिः) . इदं द्रव्यादिभिर्निरूप्यते- तत्र द्रव्यतो मनःपर्यायज्ञानी अर्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तर्गतप्राणिमनोभावपरिणतद्रव्याणि जानाति पश्यति च, अवधिज्ञानसंपन्न-: मनःपर्यायज्ञानिनमधिकृत्यैवम्, अन्यथा जानात्येव, न पश्यति।अथवा यतः साकारं तदतो ज्ञानम्, यतश्च पश्यति तेन अतो दर्शनमिति। एवं सूत्रे संभवमधिकृत्योक्तमिति, अन्यथा , ca चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनं तत्रोक्तं चतुर्धा विरुध्यते। (वृत्ति-हिन्दी-) मनःपर्यय ज्ञान का द्रव्य आदि की दृष्टि से निरूपण किया जा रहा है ca है- (1) द्रव्य से मनःपर्यायज्ञानी ढाई द्वीप-समुद्र के अन्तर्गत प्राणियों के मनोभाव-परिणत 4 द्रव्यों को जानता है, देखता है। 'जानता है- देखता है' यह कथन उस मनःपर्ययज्ञानी को दृष्टि 4 में रखकर किया है जो अवधिज्ञान-सम्पन्न भी है। अन्यथा मनःपर्ययज्ञानी मात्र जानता ही है, देखता नहीं है (इसका कारण यह है कि मनःपर्यय दर्शन नहीं होता, 'मनःपर्यायज्ञान' ही , होता है, जब कि अवधि आदि ज्ञानों में दर्शन-निराकार उपयोग व ज्ञान- साकार उपयोगात्मक, , दोनों होते हैं)। अथवा साकार उपलब्धि हो तो 'ज्ञान' होता है, और (बाद में मानस अचक्षुर्दर्शन, 9 से) देखता भी है, इस प्रकार सूत्र में संभावना रखकर वैसा (जानता है, देखता है- दोनों) " ca कहा गया है, अन्यथा (आगम में) चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन व केवल दर्शन -ये a जो चार भेद (ही) बताए गए हैं, उससे विरोध प्रसक्त होगा। / (r)(r)(r)90888088000000000000 293