________________ 22222222222222222 -aaaaaaa श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) NOranon | (हरिभद्रीय वृत्तिः) क्षेत्रतः अर्धतृतीयेष्वेव द्वीपसमुद्रेषु, कालतस्तु पल्योपमासंख्येयभागम् एष्यमतीतं वा >> कालं जानाति भावतस्तु मनोद्रव्यपर्यायान् अनन्तानिति।तत्र साक्षान्मनोद्रव्यपर्यायानेव पश्यति, , बाह्यांस्तु तद्विषयभावापन्जाननुमानतो विजानाति।कुतः?, मनसो मूर्तामूर्तद्रव्यालम्बनत्वात्, छास्थस्य चामूर्तदर्शनविरोधादिति। a सत्पदप्ररूपणादयस्तु अवधिज्ञानवदवगन्तव्याः। नानात्वं चानाहारकपर्याप्तकौ ca प्रतिपद्यमानौ न भवतः, नापीतरौ। (वृत्ति-हिन्दी-) क्षेत्र की दृष्टि से अढाई द्वीप-समुद्रों में, तथा काल की दृष्टि से a पल्योपम के असंख्येय भाग भावी या अतीत काल को जानता है। इनमें साक्षात् तो वह a मनोद्रव्य के पर्यायों को ही देखता है, उस पर्यायों के विषयभूत बाह्य पदार्थों को अनुमान से 4 जानता है। ऐसा क्यों? मन तो मूर्त मूर्त व अमूर्त -दोनों द्रव्यों का आलम्बन (विषय) करता है और छद्मस्थ को अमूर्त का दर्शन (ज्ञान) होना विरुद्ध है (अमान्य) है। a (मनःपर्यायज्ञानी की) सत्पद-प्ररूपणा आदि तो अवधिज्ञान की तरह ही समझना , G चाहिए। इस ज्ञान का नानात्व (अल्प-बहुत्व) इस प्रकार है- अनाहारक व अपर्याप्तक -ये मनःपर्यय ज्ञान के प्रतिपद्यमान नहीं होते और न ही पूर्वप्रतिपन्न होते हैं। , ca विशेषार्थ नन्दी सूत्र आदि (सू. 37) में 'मनःपर्यायज्ञानी जानता-देखता है ऐसा प्रयोग मिलता है। यहां टीकाकार ने यह प्रश्न उठाया है कि ज्ञान- जानना तो साकार बोध होता है और दर्शन- देखना अनाकार ज्ञान (उपयोग) होता है। चूंकि मनःपर्यय ज्ञान में 'दर्शन' नहीं होता, सिर्फ ज्ञान होता है। " a अतः मनःपर्यायज्ञान के लिए 'जानता है, देखता है' यह कहना किस प्रकार युक्तिसंगत है? इस " ce सम्बन्ध में विशेषावश्यक भाष्य तथा उसके व्याख्याकार आचार्य मलधारी हेमचन्द्र ने विस्तार से , विवेचन किया है। यहां आ. हरिभद्र की व्याख्या में तो यह संक्षिप्त व सांकेतिक रूप में ही विवेचित 22222222 222222222 हुआ है। आगमों में दर्शन के चार ही प्रकार बताये गए हैं- चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधि दर्शन है और केवल दर्शन। इनमें मनःपर्यय दर्शन नहीं माना गया है। जीवाजीवाभिगम (प्रतिपत्ति- 1) में सभी जीवों में इन्हीं चारों का ही विचार है। पण्णवणा (पद-29) में भी अनाकारोपयोग में इन चारों 294 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)