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________________ - 2000000000 2333333333333333333333333333 2322323222223 नियुक्ति गाथा-1 का ही निदर्शन है। स्थानाङ्ग (4/609) में भी उक्त चार ही दर्शनों का संकेत है। मनःपर्यायज्ञानी के या तो दो दर्शन (अचक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन) या तीन दर्शन (चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन व अवधिदर्शन) ही माने , गये हैं। अतः ‘मनःपर्याय ज्ञान जानता है' यह कथन तो सही है, किन्तु 'देखता है' इस कथन पर , र प्रश्नचिन्ह लग जाता है। इस सम्बन्ध में कुछ समाधान प्रस्तुत किये गये हैं। एक समाधान यह है कि . c& मनःपर्यायज्ञानी अवधिदर्शन से देखता है। किन्तु ऐसा भी हो सकता है कि मनःपर्यायज्ञानी अवधिदर्शन . से सम्पन्न नहीं हो। तब फिर 'देखता है' यह कथन पुनः विचारणीय हो जाता है। एक समाधान यह है a आया कि अपने विशिष्ट क्षयोपशम के कारण मनःपर्यायज्ञान साकार ही उत्पन्न होता है, यहां / . 'देखता है' का अर्थ है- प्रकृष्ट ईक्षण, क्योंकि 'दृश्' धातु का प्रेक्षण अर्थ होता है। अवधिज्ञान भी 'मन' " c& का प्रत्यक्ष कर सकता है, किन्तु मन की पर्यायों को जिस प्रकार सूक्ष्मता व विशुद्धता के साथ " मनःपर्यायज्ञानी जानता है, वैसी क्षमता अवधिज्ञान में नहीं है, वह मन में झलकते द्रव्य, क्षेत्र, काल , व भाव को प्रत्यक्ष नहीं कर सकता। नन्दी सूत्र की व्याख्या में यह भी कहा गया है कि ज्ञान एक होने पर भी क्षयोपशम की विचित्रता के कारण उसका उपयोग अनेकविध हो सकता है, अतः विशिष्टतर , & मनोद्रव्य पर्यायों को जानने की दृष्टि से देखता है' यह कहा गया है। दूसरा समाधान यह भी आया . कि प्रज्ञापना (पद-30) में मनःपर्याय ज्ञान का पश्यत्तापूर्वक होना बताया गया है। यद्यपि वहां , Ma अनाकार पश्यत्ता नहीं होती, किन्तु साकार पश्यत्ता तो होती ही है। अतः 'देखता है' यह कथन उसी , a 'पश्यत्ता' का संकेतक हो। 'पश्यत्ता' से तात्पर्य है- दीर्घकालिक या त्रिकालविषयक अवबोध / चूंकि 1 & मनःपर्याय ज्ञान पल्योपम के असंख्यात भाग प्रमाण अतीत-अनागत काल को जानता है, अतः यह . a त्रिकालविषयक है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) 4 उक्तं मनःपर्यायनानम्। इदानीमवसरप्राप्तं केवलज्ञानं प्रतिपादयन्नाह नियुक्तिः) अह सव्वदवपरिणामभावविण्णत्तिकारणमणंतं। सासयमप्पडिवाइ एगविहं केवलन्नाणं // 77 // [संस्कृतच्छायाः-अथ सर्वद्रव्यपरिणामभावविल्लप्तिकारणम् अनन्तम्।शाश्वतमप्रतिपाति एकविधं. 4 केवलज्ञानम् // (वृत्ति-हिन्दी-) मनःपर्याय ज्ञान का निरूपण समाप्त हुआ।अब प्रसंग प्राप्त केवलज्ञान | का प्रतिपादन करने जा रहे हैं (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)90000000
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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