________________ && &&&&&&& 332238232223333333333333333333333333333333333 -eca.cacaca cace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 2200020 / कारण, उस अर्थ की, जो इन्द्रियों से उपलब्ध हो या उनसे अनुपलब्ध हो, मन में स्मृति आविर्भूत ca होती है, वह (धारणा का) तीसरा भेद है। स्थाणु-पुरुष आदि-अवग्रह चूंकि सामान्य मात्र का ग्राहक होता है, अतः उसमें द्वितीय वस्तु की अपेक्षा होती ही नहीं। किन्तु ईहा उभय वस्तु का अवलम्बन करती है। ईहा दो समानधर्मी , ca विषयों में से किसी एक की ओर झुकती हुई 'अपाय' को प्राप्त होती है। नेत्र इन्द्रिय दो समानधर्मी " & रूप वाले विषयों में, रसना दो समानधर्मी रस वाले विषयों में, घ्राण इन्द्रिय दो समानधर्मी गन्ध वाले , & विषयों में, श्रोत्र इन्द्रिय दो समानधर्मी शब्दों वाले विषयों में, तथा स्पर्शनेन्द्रिय दो समानधर्मी स्पर्श ca वाले विषयों में प्रवर्तित होती है। यहां यह ध्यान रखना होगा कि वस्तु तो एक ही होती है, किन्तु " & रूपादि-सादृश्य के आधार पर दूसरी असद्भूत वस्तु -जो सम्बद्ध स्थल पर नहीं होती -का ध्यान " ज्ञाता को होता है। किन्तु सदृशता के साथ-साथ उन वस्तुओं में भिन्नता के प्रतिष्ठापक धर्म होते हैं। ce ज्ञाता उन भिन्नता-प्रतिष्ठापक व्यतिरेक-धर्मों के आधार पर दो वस्तुओं में से किसी एक की ओर & निर्णयाभिमुख होता है। यह प्रक्रिया 'ईहा' का अंगभूत होती है। जैसे- थोड़ा अन्धेरा हो, धुंधली रोशनी हो सामने वृक्ष को देखकर ईहा होगी- जिज्ञासा , होगी कि यह वृक्ष है या पुरुष। चूंकि ऊंचाई, ऊपरी उभार, चौड़ाई आदि अनेक धर्मों की समानता, दोनों- वृक्ष व पुरुष में होती है। किन्तु ज्ञाता वहां कुछ ऐसे धर्म भी देखता है जो पुरुष में नहीं होते, " & वृक्ष में ही होते हैं, बाह्य परिस्थितियां भी जो वृक्ष के सद्भाव की और मनुष्य के अभाव की पोषक होती हैं, वे भी विमर्श में आती हैं। अंत में वृक्ष के सद्भाव की ओर बढ़ता हुआ जो बोध है, वह निर्णय से पूर्व की स्थिति 'ईहा' है। आचार्य हरिभद्र ने यहां समानरूपधर्मी विषयों के उदाहरण के रूप में 21 & स्थाणु (ढूंठ वृक्ष) और पुरुष (दैत्याकार भूत-प्रेत आदि) को प्रस्तुत किया है। इसी तरह कुष्ठ व उत्पल & को समांनगंधधर्मी के रूप में, संभृत करील और मांस को समान रसधर्मी, तथा सर्प व कमलनाल को समानस्पर्शधर्मी के रूप में प्रस्तुत किया है। घ्राणेन्द्रिय से होने वाले ईहादि ज्ञान के कुष्ठ व उत्पल 4 आदि की तरह 'समानगन्धधर्मी विषय' होते हैं। यहां कुष्ठ (एक वृक्ष, वनस्पति विशेष) इत्र के बाजार & में बिकने वाली कोई वस्तु होती है और उत्पल का अर्थ पद्म (कमल) है। इन दोनों की गन्ध समान होती है। जब वैसी ही गन्ध (अनुभूत) होती है, तब यह कुष्ठ है या कमल है?' -इस प्रकार की ईहा प्रवृत्त होती है। (इसी प्रकार,) संस्कारित (वंश) करील व मांस आदि समानरसधर्मी विषय होते हैं। वंशकरील- बांस का अंकुर होता है जो खाया जाता है। सुश्रुत संहिता में इसे वायु व कफ का कारक, " मधुरविपाकी, विदाही, कसैला, रूखा बताया गया है- वेणोः करीराः कफला मधुरा रसपाकतः। विदाहिनो वातकराः सकषायाः विरुक्षणाः (सुश्रुत-46/3/4)। दशवैकालिक (5/21) में इसे 'वेलुय' शब्द से अभिहित किया गया है। टीकाकारों ने इस का संस्कृत रूप वंशकरील (या बिल्व) दिया है। 50 (r)(r)ce@p@conce@@cr89828890 &&&&&&&&