________________ -tence Rece नियक्ति-गाथा-3 000000000 2223333 32322232222222222222222222222222222222 वहां इसे श्रमण के लिए बिना उबाले खाने का निषेध किया गया है। साफ कर उपयुक्त पदार्थों (मसाले a आदि) के मिश्रण से परिष्कृत व चटपटा बनाया हुआ वंशकरील नामक बांस की जाली वाला उक्त , खाद्य पदार्थ का और मांस का, दोनों का स्वाद एक जैसा होता है। इसलिए, अन्धकार आदि में, (इन" व दोनों में से) किसी एक को जिव्हा के अग्रभाग पर रखा जाय तो इस प्रकार ईहा होती है कि क्या यह 7 मसालेदार चटपटा वंशकरील है या मांस है?'। स्पर्शनेन्द्रिय से होने वाले ईहा आदि ज्ञान के विषय , सर्प व कमलनाल आदि की तरह 'समानस्पर्शधर्मी विषय' होते हैं। सर्प व कमलनाल -इन दोनों का स्पर्श एक जैसा होता है, इसलिए ईहा की प्रवृत्ति सुगम ही है अर्थात् 'यह सर्प है या कमलनाल?' यह ईहा होती है। मानसिक अवग्रह- इसी प्रकार, स्वप्न आदि में, इन्द्रिय-व्यापार के न होने पर भी, मन के द्वारा शब्द आदि विषयों में अवग्रह आदि होते हैं। बन्द दरवाजे वाले स्थान में, अन्धकारपूर्ण स्थान में, दीवार या परदे आदि से ढके स्थान में जहां इन्द्रिय-व्यापार का अभाव होता है. मानसिक अवग्रहादि, होते हैं। इनमें केवल मन का ही व्यापार होना माना जाता है, अर्थात् इन्द्रिय-प्रवृत्ति का प्रायः , अपेक्षाकृत अभाव होता है, अतः (उस स्थिति में भी) शब्दादि विषयों में अवग्रह, ईहा, अपाय, धारणा, ca का सदभाव होता है, जिनका (स्वरूपादि सम्बन्धी) विचार स्वयं कर लेना चाहिए। जैसे-स्वप्न आदि . a में चित्त की उत्प्रेक्षा (कल्पना) मात्र से गीत आदि शब्द सुनाई दे रहे हों तो (उक्त मनःकृत) उत्प्रेक्षा में . प्रथमतया 'सामान्य' मात्र का अवग्रह होता है, फिर 'क्या यह शब्द है या अशब्द है?' इत्यादि उत्प्रेक्षा रूप में 'ईहा' होती है। शब्द-सम्बन्धी निश्चय होने पर अपाय, और उसके बाद धारणा होती है। इसी , प्रकार, (स्वप्न में) देवता आदि के रूप दर्शन की, कर्पूर आदि पदार्थों के गन्ध-अनुभूति की, मोदक . आदि के रस-आस्वादन की, स्त्री के शरीरादि के स्पर्श-सुख की उत्प्रेक्षा होती है, तो केवल मन के अवग्रह आदि ज्ञानों का होना समझ लेना चाहिए। a (हरिभद्रीय वृत्तिः) a ततश्च व्यञ्जनावग्रहश्चतुर्विधः, तस्य नयनमनोवर्जेन्द्रियसंभवात्।अर्थावग्रहस्तु षोठा, तस्य सर्वेन्द्रियसंभवात्। एवमीहादयोऽपि प्रत्येकं षट्प्रकारा एवेति। एवं संकलिताः सर्व एव , अष्टाविंशतिर्मतिभेदा अवगन्तव्या इति। (वृत्ति-हिन्दी-) इस प्रकार व्यञ्जनावग्रह के चार भेद होते हैं, क्योंकि वह नेत्र व मन , को छोड़कर अन्य (शेष चार) इन्द्रियों से होता है। अर्थावग्रह के छः भेद हैं, क्योंकि ईहा आदि : " भी प्रत्येक (इन्द्रिय) के छः छः प्रकार होते हैं। इस तरह, सब का योग करने पर मति ज्ञान " के कुल अट्ठाईस भेद (होते हैं- ऐसा) जानना चाहिए। (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 51