________________ RRRRRRRRR नियुक्ति गाथा-3 2909200000 222222222333333333333333333333333333333333332 / स्मृति सम्बन्धी वासना रूप धरण को, 'धारणा' कहते हैं। (गाथा में, पठित) “पुनः' शब्द का ca (एव) 'ही' अर्थ है जो 'अवधारण' को सूचित कर रहा है, अतः अर्थ होगा- धरण को ही , & 'धारणा' कहते हैं। 'कहते हैं: (ब्रुवते) -इस पद से (वक्ता की) शास्त्र-परतन्त्रता सूचित की , जा रही है, अर्थात् उक्त कथन (मेरा अपना नहीं, किन्तु सर्वज्ञ) तीर्थंकर व गणधर (आदि) द्वारा निरूपित किया गया है। इस प्रकार, शाब्दिक (व्युत्पत्ति) के आधार पर श्रोत्रेन्द्रिय- 1 ब निमित्त वाले अवग्रह आदि का प्रतिपादन कर दिया गया है। शेष इन्द्रियों से होने वाले रूप , & आदि विषयों को -जैसे स्थाणु (ढूंठ वृक्ष) और पुरुष, कुष्ठ और उत्पल, संभृत करील और " a मांस, सर्प और उत्पल-नाल (कमल-नाल) आदि (की ईहा) में (अवग्रह आदि की प्रक्रिया " को) समझ लेना चाहिए। इसी प्रकार, स्वप्न में जो मन द्वारा किये जाते हैं, और स्वप्न के अलावा जब इन्द्रियव्यापार नहीं होता और मन की क्रिया प्रवृत्त होती रहती है, तब भी होने वाले, ऐसे (मानसिक) अवग्रह आदि के विषय में भी समझ लेना चाहिए। व विशेषार्थa अवग्रह के बाद 'हा' का प्रारम्भ होता है। इसमें विशेष-अर्थाभिमुखी आलोचना-पर्यालोचना प्रारम्भ होती है। साथ ही, विशेष अर्थ के अन्वय (सद्भूत) और व्यतिरेक (असद्भूत) धर्म का समालोचन, व्यतिरेक (असद्भूत) धर्म का परित्याग कर अन्वयधर्म का समालोचन भी होता है। ईहा का कार्य सम्पन्न होने पर अर्थ के स्वरूप का परिच्छेद (ज्ञान) होता है और ज्ञेय वस्तु सर्वथा / अवधारणा के योग्य बन जाती है। इसे 'अपाय' की अवस्था कहते हैं। अवाय के साथ, अवगृहीत, विषय की जो बोधात्मक प्रक्रिया प्रारम्भ हुई थी, वह सम्पन्न हो जाती है। अवधारित अर्थ का हृदय या / है मस्तिष्क में प्रतिष्ठित हो जाना 'धारणा' है। वासना व संस्कार धारणा के ही पर्याय या अंग हैं। धारणा " ही आगे चल कर स्मृति रूप में परिणत होती है। आचार्य मलधारी हेमचन्द्र ने विशेषावश्यक भाष्य , की (गाथा-291) में अविच्युति, वासना व स्मृति को धारणा के प्रकार के रूप में इस प्रकार निरूपित / a किया है- अपाय से निश्चित किये गये पदार्थ में, उस (अपाय) के होने से लेकर जब तक उस पदार्थ- 0 व सम्बन्धी उपयोग की निरन्तरता बनी रहती है, वह निवृत्त नहीं होती, तब तक उस पदार्थ से (अपाय- 1 ज्ञान की) जो अविच्युति है, वह धारणा का प्रथम भेद है (यह प्रथम प्रकार की धारणा है)। उसके बाद, . उस पदार्थ-सम्बन्धी उपयोग का जो आवरण (करने वाला) कर्म है, उसके क्षयोपशम से जीव सम्पन्न / होता है, जिससे कालान्तर में इन्द्रिय-व्यापार आदि सामग्री के कारण, पुनः पदार्थ-सम्बन्धी वह " उपयोग ‘स्मृति' रूप से उन्मीलित (प्रकट) हो जाता है। सम्बद्ध उपयोग के आवरण की क्षयोपशम रूप जो स्थिति है, वह 'वासना' है, यह धारणा का द्वितीय भेद है। और, कालान्तर में, वासना के - (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)