________________ -Rececementce හ හ හ හ හ හ හ හ හ 223222323222222222222222222222223332222222222 नियुक्ति-गाथा-55 (हरिभद्रीय वृत्तिः) आह च-तिर्यञ्चश्च मनुष्याश्च तिर्यग्मनुष्याः, तेषामवधिः नानाविधसंस्थानसंस्थितोनानाविधसंस्थितः, संस्थानशब्दलोपात्, स्वयंभूरमणजलधिनिवासिमत्स्यगणवत्।अपितु तत्रापि वलयं निषिद्धं मत्स्यसंस्थानतया, अवधिस्तु तदाकारोऽपीति भणितः' उक्तः अर्थतस्तीर्थकरैः सूत्रतो गणधरैरिति। __ अयं च भवनव्यन्तराणाम् ऊर्ध्वं बहुर्भवति, अवशेषाणां तु सुराणामधः, , 4 ज्योतिष्कनारकाणां तु तिर्यक्, विचित्रस्तु बरतिरश्चामिति गाथार्यः // 15 // (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) तिर्यञ्च व मनुष्य -इनका अवधिज्ञान अनेक प्रकारों में : स्थित होता है। यहां संस्थान शब्द लुप्त है, अर्थात् वह अवधिज्ञान अनेक प्रकार के संस्थानों में , 4 स्थित होता है। उदाहरणार्थ- जैसे स्वयम्भूरमण समुद्र में रहने वाले मस्त्य विविध आकारों : में होते हैं, उसी तरह यह अवधिज्ञान होता है। किन्तु अन्तर इतना है कि उक्त समुद्र-मत्स्यों , में वलयाकार के सद्भाव का निषेध किया गया है जब कि अवधिज्ञान का तो वलय (कंगन) 0 जैसा भी आकार होता है- ऐसा 'अर्थ' रूप से तीर्थंकरों द्वारा, तथा 'सूत्र' रूप से गणधरों * द्वारा कहा गया है। उक्त अवधिज्ञान भवनवासी व व्यन्तर देवों का ऊपर की ओर अधिक (सीमा का) " : होता है, शेष देवों का नीचे की ओर, तथा ज्योतिष्क व नारकी जीवों का तिर्यक् दिशा में : : अधिक होता है। मनुष्य व तिर्यञ्चों में तो यह अवधिज्ञान विचित्र (हीनाधिक) होता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ |55 // विशेषार्थa यहां अवधिज्ञान के संस्थानों के आकारों का निर्देश किया गया है। प्रज्ञापना (पद-33) में भी यही निरूपण दृष्टिगोचर होता है। अवधि का क्षेत्र-परिमाण एवं संस्थान -इन दोनों में अन्तर यह है कि , क्षेत्रपरिमाण से तात्पर्य है- 'ज्ञेय' का परिमाण, और संस्थान से यहां तात्पर्य है- ज्ञान का आकार। , किन्तु दिगम्बर परम्परा के षट्खण्डागम तथा धवला टीका एवं गोम्मटसार आदि में CM 'संस्थान' को शरीरगत बताया गया है। उनके अनुसार, अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से युक्त जीव-प्रदेशों के करण-रूप शरीर -प्रदेश अनेक संस्थान वाले होते हैं (षट्खंडा-13/सू. 47 व 58 पृ. 296-298) / ये संस्थान-श्रीवत्स, कलश, शंख, स्वस्तिक, नन्दद्यावर्त आदि के रूप में होते हैं। (r)(r)(r)(r)ce@90(r)(r)(r)(r)900904000 241 8