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________________ 222222222222222222222222222223333333333333333 -aaaaaaa श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 विचित्र और पुराने वृक्षों के कोटर में बने मकड़ी के जाले के तंतु का आलम्बन ले कर उन तंतुओं को ca टूटने न देते हुए पैर उठा कर चलने में जो कुशल होते हैं, वे मर्कटकतन्तुचारणलब्धिधारी मुनि >> कहलाते हैं। चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र आदि किसी भी ज्योति की किरणों का आश्रय ले कर नभस्तल में , जमीन की तरह पैर से चलने की शक्ति वाले ज्योतिरश्मिचारण मुनि कहलाते हैं। अनेक दिशाओं में / प्रतिकूल या अनुकूल चाहे जितनी तेज हवा में, वायु का आधार ले कर अस्खलित गति से पैर रख कर चलने की कुशलता वाले वायुचारणलब्धिप्राप्त मुनि कहलाते हैं। 'आशीविष और आसीविष- ये दोनों नाम एक ही लब्धि के मिलते हैं। आश्य= जिसने अशन, भक्षण किया जा सके, यानी दाढ़।आस्य-मुख।दाढ़ या मुख में जिसके विष हो, उससे दूसरे ? को मारने की जिनमें क्षमता हो- वे 'आशीविष' होते हैं। कुछ तो जन्मजात आशीविष होते हैं- जैसे - बिच्छू आदि।कुछ मनुष्य भी जन्मात आशीविष होते हैं। व्याख्याकारों ने इन जन्मजात विषधारियों " a के प्रभाव की भी चर्चा की है। आचार्य अकलंक के अनुसार, आशीविष लब्धि वाले व्यक्ति किसी को , a 'मर जाओ' इतना कह देते हैं तो उस व्यक्ति के शरीर में विष फैल जाता है। (द्र. राजवार्तिक, 3/36) / , 6. किसमें कितना विष होता है -इसका भी संकेत प्राप्त होता है। जैसे- एक बिच्छू में इतना अधिक जहर हो सकता है कि उत्कृष्ट रूप से (अधिकाधिक रूप में) आधे भरत क्षेत्र जितने शरीर में व्याप्त हो सकता है। मेंढक का विष उससे भी दुगने यानी पूरे भरत क्षेत्र जितने शरीर को डस सकता है। a सांप का जहर जम्बूद्वीप प्रमाण शरीर में फैल सकता है। मनुष्य का विष तो समयक्षेत्र (अढ़ाई द्वीप) प्रमाण शरीर को व्याप्त कर सकता है। इसके अतिरिक्त कुछ कर्मजन्य आशीविष होते हैं। इनमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य ही नहीं, सहसार देवलोक तक के देव भी होते हैं। विषकन्या आदि के उदाहरण तो प्रसिद्ध हैं ही। ये कर्मजन्य " आशीविष किसी को दांत या मुंह से काटते तो नहीं, किन्तु अपनी वाणी से जहर उगलते हैं, शाप : : देकर नष्ट करते हैं। देवों में ऐसा कैसे सम्भव है- इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है- मनुष्य , :जन्म में जिन्हें आशीविषलब्धि प्राप्त हो चुकी हो, वे मर कर सहस्रार तक देवों में उत्पन्न हों तो : 4 अपर्याप्त अवस्था में पूर्वजन्म की उक्त लब्धि बनी रहती है। उस समय की स्थिति को दृष्टि में रख कर, देवों को 'कर्मज आशीविष' में परिगणित किया गया है। वे देव पर्याप्त अवस्था में आते ही उक्त लब्धि a से रहित हो जाते हैं। यद्यपि पर्याप्त अवस्था वाले देवों में भी शाप आदि देने की शक्ति होती है, किन्तु . वह लब्धिजन्य नहीं मानी जाती। -333333333338888888888888888 280 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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