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________________ ARRRRRRRRRR नियुक्ति गाथा-8 902020009000 (8) 222222223333333333333332223333333333333333382 (नियुक्ति-अर्थ-) त्रिविध शरीर में जीव के (अंगभूत) जीव-प्रदेश हुआ करते हैं, . जिन (आत्म-प्रदेशों) के द्वारा जीव 'ग्रहण' (के योग्य शब्द-पुद्गलों) का ग्रहण करता है, . इसके बाद वक्ता भाषा का भाषण करता है। ce (हरिभद्रीय वृत्तिः) (व्याख्या-) 'त्रिविधे' त्रिप्रकारे।शीर्यत इति शरीरं तस्मिन्, औदारिकादीनामन्यतम , इत्यर्थः।जीवतीति जीवः तस्य प्रदेशाः जीवप्रदेशाः भवन्ति। एतावत्युच्यमाने 'भिक्षोः पात्रम्' . 4 इत्यादौ षष्ट्या भेदेऽपि दर्शनात्मा भूद् भिन्नप्रदेशतयाऽप्रदेशात्मसंप्रत्यय इत्यत आह-जीवस्य / c आत्मभूता भवन्ति, ततश्चानेन निष्प्रदेशजीववादिनिराकरणमाह, सति निष्प्रदेशत्वे करचरणोa रुग्रीवाद्यवयवसंसर्गाभावः, तदेकत्वापत्तेः। कथम्? -करादिसंयुक्तजीवप्रदेशस्य " उत्तमाङ्गादिसंबद्धात्मप्रदेशेभ्यो भेदाभेदविकल्पानुपपत्तेरिति। a. (वृत्ति-हिन्दी-) त्रिविध यानी तीन प्रकार के शरीर में / जो शीर्ण (क्षीण) होता है, वह 'शरीर' कहा जाता है, अर्थात् औदारिक आदि पांच प्रकार के शरीरों में से कोई भी एक।जो जीवित रहता है, वह 'जीव' है। जीव-प्रदेश यानी जीव के प्रदेश / किन्तु उक्त कथन करने पर, , जिस प्रकार 'भिक्षु का पात्र' इस कथन में 'का' (षष्ठी विभक्ति) के कारण (भिक्षु व पात्र में परस्पर) भेद देखा जाता है, उसी तरह कहीं जीव और प्रदेश -इन (दोनों) में परस्पर भेद " << मान कर, किसी को आत्मा के प्रदेशरहित होने की प्रतीति हो सकती है, इसलिए (उसके " a निवारण हेतु) कहा- (जीवस्य)। जीव के (वे जीव-प्रदेश) हैं, अर्थात् वे प्रदेश जीवरूप हैं जीव के आत्मभूत हैं (अर्थात् जीव से अभिन्न हैं)। इस कथन के द्वारा 'जो जीव को प्रदेशरहित (निरवयव) मानते हैं, उनका निराकरण भी सूचित कर दिया गया है। क्योंकि / जीव यदि प्रदेशहीन हो तो उसका हाथ, पांव, ऊरु, ग्रीवा आदि अवयवों से संसर्ग (संगत) n नहीं हो पाएगा, इसका कारण यह है कि यदि संसर्ग हो तो हाथ, पांव आदि की (भिन्नता & समाप्त होकर) एकता (अभिन्नता) की अनिष्ट स्थिति पैदा हो जाएगी। (प्रश्न-) यह कैसे होगी? (उत्तर-) हाथ आदि से संयुक्त जीव-प्रदेश और सिर आदि से सम्बद्ध आत्मप्रदेश -: इनमें परस्पर भेद या अभेद -इन दोनों विकल्पों की असंगति हो जाएगी। [तात्पर्य यह है कि * यदि भेद मानेंगे तो आत्मा को भी सावयव मानना पड़ेगा, और आत्मा को निष्प्रदेश मानने का मत खण्डित होगा, और अभेद मानेंगे तो निष्प्रदेश आत्मा की भिन्न-भिन्न अवयवों के साथ संयोग नहीं हो SecROBRO0808090Sce@ 81 -
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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