________________ 222222233333232323323222222222323232223322222 -acacacecacace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 भावाक्षर के कारण होते हैं। किन्तु लब्ध्यक्षर भावाक्षर रूप है, क्योंकि वह विज्ञान-रूप है। यहां अक्षरश्रुत का (द्विविध) अर्थ है- (1) द्रव्याक्षरों की दृष्टि से अक्षरात्मक श्रुत और (2) , G भावाक्षर की दृष्टि से अक्षर श्रुत (अर्थात् वह श्रुत जो अक्षर है)। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 19 // विशेषार्थ श्रुतज्ञान के 14 भेद (निक्षेप) यहां निरूपित किये गये हैं। यहां अक्षरश्रुत व अनक्षर श्रुत का ca भेद जो किया गया है, वह अक्षर व संकेत के आधार पर होने वाले द्विविध ज्ञानों की अपेक्षा से है। वर्ण, पद, वाक्य आदि बोल कर भी ज्ञान कराया जा सकता है और अनक्षरात्मक यानी संकेतात्मक 4 (निरर्थक) ध्वनियों द्वारा भी कराया जा सकता है। भावश्रुत ज्ञान के कारण होने से द्रव्यश्रुत इन्हें कहा है जा सकता है। इसी प्रकार, संज्ञिश्रुत व असंज्ञि श्रुत का भेद जो किया गया है, वह मानसिक विकास ca या समनस्क-अमनस्क (वस्तुतः संज्ञी या असंज्ञी) व्यक्तियों के आधार पर होने वाले ज्ञान की अपेक्षा से है। ज्ञाता सम्यक् दृष्टि है या मिथ्यादृष्टि है, उसके ज्ञान के आधार पर सम्यक्श्रुत व असम्यक्श्रुत -ये दो भेद किये गये हैं। कालावधि के आधार पर सादि-अनादि श्रुत भेद हैं। ज्ञान सामान्य की दृष्टि & से 'श्रुत' अनादि है तो व्यक्ति-विशेष की दृष्टि से अनादि है। इसी तरह, प्रवर्तनमान असवर्पिणी के . भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट श्रुत 'सादि' है तो अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल-चक्र की दृष्टि से / & 'श्रुत' भी अनादि है। रचना-शैली की अपेक्षा से गमिक व अगमिक -ये श्रुत भेद किये गये है। जो है रचना भंग-गणित प्रधान या सदृश पाठ प्रधान होती है, उसकी संज्ञा गमिक श्रुत है। विसदृश पाठ ca प्रधान रचना अगमिक है। दृष्टिवाद को गमिक तथा आचारांग आदि कालिक़ श्रुत को आगमिक कहा a गया है (वस्तुतः यह कथन बहुलता की अपेक्षा से समझना चाहिए)। कालिक श्रुत एवं दृष्टिवाद में जो चतुर्भंग आदि विकल्प कहे गये हैं, तथा संकलन (जोड़ करना) आदि गणित का वर्णन है और क्रियाविशाल 'पूर्व' में जो छन्द प्रकरण हैं, ये सभी गमिक हैं। प्रयोजनवश अगमिक श्रुत में भी कहीं कहीं सदृश पाठ की रचना शैली अपनाई गई है, उदाहरणार्थ- निशीथ सूत्र का बीसवां उद्देशक, शेष व गाथा, श्लोक आदि विसदृश पाठ होने से अगमिक हैं। अंग-अनंग श्रुत का भेद जो है, वह ग्रन्थकर्ता या c. प्रवचनकार की अपेक्षा से है। गणधरों द्वारा रचित आगम अंग (अंगप्रविष्ट) श्रुत हैं, और उन आगमों , / के आधार पर स्थविरों द्वारा निर्मूढ आगम अनंग (अंगबाह्य) श्रुत हैं। अथवा गणधर-कृत त्रिपृच्छा के " प्रत्युत्तर में तीर्थंकर का उत्पाद व्यय ध्रौव्यत्मक जो आदेश-प्रतिवचन है, उससे निष्पन्न है-अंगप्रविष्ट / - 150 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)920