________________ 3333333333333333322222223333333333333 Recace ca ca ca caca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 000 0000 / विशेषार्थ यहां द्रव्य की स्थूलता व सूक्ष्मता के अनुरूप प्रमेयभूत समुद्र-द्वीपादि की अल्पता-बहुलता , C का होना बताया है। उसका तात्पर्य यह है कि तैजस द्रव्य का जानने वाला अवधिज्ञान, और भाषा , ca द्रव्य आदि को जानने वाला अवधिज्ञान -ये सभी क्षेत्र की दृष्टि से असंख्यात द्वीप-समुद्रों को जानते " हैं, फिर भी उनमें विषय की अल्पता-बहुलता का अन्तर होता है। जो जितना सूक्ष्म द्रव्य को विषय , C करेगा, उसका क्षेत्र-विषय भी सूक्ष्मतर होने से अधिकता लिए हुए होगा। तैजस शरीर की तुलना में , c& कार्मण सूक्ष्म है, कार्मण शरीर से भी अबद्ध तैजस वर्गणा द्रव्य अधिक सूक्ष्म है, उससे भी सूक्ष्म " भाषा द्रव्य हैं, अतः तैजस शरीर को जानने वाले अवधि ज्ञान की तुलना में कार्मण शरीर को जानने , वाला अवधिज्ञान असंख्यात द्वीप-समुद्रों को जो जानता है, वह अधिक सूक्ष्मता लिए हुए होता है, . अतः वहां क्षेत्र की अपेक्षाकृत बहुलता होती है। ce तैजस व भाषा के अवधिज्ञान का क्षेत्र व काल तैजस व भाषा द्रव्य को विषय करने वाला अवधिज्ञान क्षेत्र की दृष्टि से असंख्यात द्वीप-समुद्र 1 को जानता है-ऐसा यहां प्रस्तुत व्याख्यान में बताया गया है। यहीं शंकाकार ने प्रश्न किया कि उक्त ca कथन पूर्वकथन से विरुद्ध है। पूर्व में गा. 38 आदि में बताया गया था कि तैजस व भाषा द्रव्य को जानने वाला अवधिज्ञान अंगुल के असंख्यात भाग को जानता है, और यहां गाथा 43 में कहा जा ल रहा है कि असंख्यात क्षेत्र को जानता है। पहले असंख्यात भाग को जानना और अब असंख्यात क्षेत्र ca को जानना -ये दोनों परस्पर-विरुद्ध कथन हैं। उत्तर में यह बताया गया है कि पूर्व कथन इस बात को समझाने के लिए किया गया है। कि वह प्रारम्भिक (व प्रतिपाती अवधि ज्ञान सम्पन्न) तैजस व भाषा द्रव्य -दोनों के अयोग्य द्रव्य को , ग्रहण करता है, शेष को ग्रहण नहीं कर पाता। दोनों के अयोग्य होने की परिणति द्रव्य की अपनी है, . c& वह विचित्र होती है। अतः पूर्वोक्त क्षेत्र काल के प्रमाण में कोई विरोध वाली बात नहीं है। दूसरा >> a समाधान यह है कि पूर्व का कथन अल्प द्रव्यों के रूप में किया गया है और प्रस्तुत गाथा का कथन है प्रचुर तैजस व भाषा द्रव्यों के रूप में किया गया है। &&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&& (हरिभद्रीय वृत्तिः) आह-जघन्यावधिप्रमेयं प्रतिपादयता गुरुलघु अगुठलघु वा द्रव्यं पश्यतीत्युक्तम्, न . & सर्वमेव।विमध्यमावधिप्रमेयमपि चाङ्गुलावलिकासंख्येयभागाद्यभिधानात् न सर्वद्रव्यरूपम्, : तत्रस्थानामेव दर्शनात्, अत उत्कृष्टावधेरपि किमसद्रव्यरूपमेवालम्बनम्, आहोस्विन्नेति, , इत्यत्रोच्यते - 218(r)(r)(r)(r)(r)n@cr(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)