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________________ aacaacaaca श्रीआवश्यकनियुक्ति (व्याख्या-अबुवाद सहित) 200mmon 2233333333332222232222 (2) अभिमत देवता-जो विघ्नविनाशक (शक्ति) के रूप में मान्य किये गए हों, वे अभिमत देवता होते हैं। जैसे- श्रुत-अधिष्ठात्री, एवं शासन देवता आदि। (तीर्थकर- विशेष की विशेष यक्षca यक्षिणी रूप) शासन देवता अविरत (संयमहीन) होते हैं, अतः उनकी अभीष्ट देवता के रूप में पूज्यता " a तो नहीं होती, किन्तु ग्रन्थ की निर्विघ्नता -इस प्रयोजन की सिद्धि के लिए वे कार्य-साधक (सहायक) a होते हैं, साथ ही अभीष्ट देव जिनेन्द्र आदि से जुड़े हुए होते हैं, इसलिए उनके प्रति विनय-प्रदर्शन व ca कृतज्ञता-ज्ञापन के रूप में नमस्कार किया जाता है- ऐसा कुछ आचार्यों का मत है। (3) अधिकृत देवता-शास्त्र-निर्माण के संदर्भ में जिनका अधिकार (महत्त्व) हो, वे अधिकृत a देवता होते हैं। जैसे- भावश्रुत रूप देव, जिनवाणी या ज्ञानदाता के रूप में गुरु आदि, एवं प्राचीन 4 आचार्य आदि (भी अधिकृत देवता हैं)। अधिकृत देवता के प्रति नमन ज्ञानावरण के क्षयोपशम का ca साधक होता है, इसलिए उसका औचित्य है ही। आगम में भी प्रतिपादित किया गया है कि श्रुत- " a आराधना से अज्ञान-क्षय आदि (फल प्राप्त) होते हैं। ca 'अभीष्ट देवता' के रूप में भगवान् तीर्थंकर महावीर की यहां प्रणति-पूर्वक स्तुति की गई . है। प्रारम्भ किए जाने वाले ग्रन्थ की समाप्ति निर्विघ्न हो- इस उद्देश्य, से वृत्तिकार आचार्य हरिभद्र ने श्रुतदेवता की यहां अभिमत देवता के रूप में स्तुति की है। यहां श्रुतदेवता' से तात्पर्य है:- 'श्रुत' की , अधिष्ठात्री देवता। 'श्रुत' रूपी देवता- इस व्युत्पत्ति से तो 'अभिमत-देवता' अर्थ न होकर, 'अधिकृत देवता' अर्थ व्यक्त होगा। वृत्तिकार द्वारा 'श्रुत-देवता' को नमस्कार कर इस तथ्य को संकेतित किया ca गया है कि 'श्रुतदेवता' (शासन-देवता) अविरत' होने पर भी व्यावहारिक दृष्टि से स्तुति योग्य हैं। श्रुतce देवता को ज्ञान व आचार-दोनों में पारंगत मानना और जिनेन्द्र आदि की तरह पूज्य मानना -यह है मिथ्यात्व है। गुरुः-गुरु के प्रति की गई प्रणति के माध्यम से 'अधिकृत-देवता' की स्तुति की गई है। : शास्त्र-रचना में उपकारी होने से 'गुरु' 'अधिकृत देवता हैं। साधुः- यहां 'साधु' पद से उपाध्याय, वाचनाचार्य, गणावच्छेदक आदि का भी ग्रहण a शास्त्रकार को अभीष्ट है, क्योंकि इन सभी में 'साधुत्व' अनिवार्य रूप से होता ही है। यद्यपि मया तथाऽन्यः, कृताऽस्य विवृतिस्तथापि संयोपात्। तद्-सचिसत्त्वानुग्रहहेतोः क्रियते प्रयासोऽयम् RI (हिन्दी अर्थ-) यद्यपि मैंने तथा,अन्य (आचार्यो) ने इस (आवश्यक सूत्र) की विवृति * (व्याख्या) की है, तथापि संक्षेप-रुचि प्राधियों पर अनुग्रह की भावना के कारण, संक्षेप से | विवृति (वृत्ति) करने का यह मेरा प्रयास है।2।। (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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