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________________ 333333333333333333333333333333333333333333333 cace caca cacace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000(हरिभद्रीय वृत्तिः) खलुशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, तस्य च व्यवहितः संबन्धः। सप्तैव एते' श्रुतपक्षाः सप्रतिपक्षाः, न पक्षान्तरमस्ति, सतोऽत्रैवान्तर्भावात्।तथा गमा अस्य विद्यन्ते इति गमिकम्, & तच्च प्रायोवृत्त्या दृष्टिवादः।तथा गाथाद्यसमानग्रन्थम् अगमिकम्, तच्च प्रायःकालिकम्।तथा : व अङ्गप्रविष्टं गणधरकृतम् आचारादि, अनङ्गप्रविष्टं तु स्थविरकृतम् आवश्यकादि। गाथाशेषमवधारणप्रयोगं दर्शयता व्याख्यातमेवेति गाथार्यःRO॥ (वृत्ति-हिन्दी-) 'खलु' शब्द का 'एव' ('ही') अर्थ है। (अर्थात्) वह अवधारण अर्थ ce को व्यक्त करता है और उसका व्यवहित (आगे किसी पद के साथ) सम्बन्ध है, अर्थात् (यहां से ca सावधारण अर्थ इस प्रकार व्यक्त हुआ समझें-) ये सात ही श्रुतनिक्षेप हैं और इनके सात ही , प्रतिपक्ष भी हैं, कोई अन्य पक्ष (निक्षेप, भेद) नहीं है (अर्थात् छः भेद या आठ भेद, अथवा .. समग्रतया बारह भेद या सोलह भेद आदि नहीं हो सकते)। यदि कोई दूसरा पक्ष हो भी तो , वह इन्हीं (सातों या चौदह) भेदों में अन्तर्भूत है। और गमिक यानी जिसका ‘गम' हो / (सदृशता से बोधनीय) हो। जैसे- दृष्टिवाद 'गमिक' है, यह कथन प्रायोवृत्ति (बहुलता) के आधार पर है। गाथा आदि जो असमान (असदृश पाठ वाले) ग्रन्थ हैं, वे अगमिक हैं, यह कथन भी प्रायःकालिक (बहुलता के आधार पर) है। अंगप्रविष्ट वे श्रुत हैं जिनकी गणधरों ने & (शाब्दिक) रचना की है। स्थविरों द्वारा रचित आवश्यक आदि अनंगप्रविष्ट हैं। इस प्रकार ca अवधारण-प्रयोग (एवकार, 'ही' के साथ) को स्पष्ट करते हुए गाथा के शेष भाग की भी & व्याख्या हो गई। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 20 // ce विशेषार्थ नन्दी सूत्र (चतुर्थ प्रकरण, परोक्ष श्रुतज्ञान) में संज्ञा के स्वरूप व भेदों का, सम्यक्श्रुत- " & मिथ्याश्रुत के भेदगत आधार का, और अंगप्रविष्ट व अनंग प्रविष्ट का प्रतिपादन किया गया है। 'संज्ञी' से यहां तात्पर्य है- जिनमें संज्ञान हो, जिनमें इष्ट की प्राप्ति हेतु प्रवृत्ति और अनिष्ट से निवृत्त होने की क्रिया हो, वे 'संज्ञी' है। संज्ञा के तीन प्रकार हैं- दीर्घकालिकी, हेतूपदेशिकी और . दृष्टिवादोपदेशिकी। (1) कालिकी संज्ञाः यह संज्ञा का विकसित रूप है, इसका अधिकारी गर्भज पंचेन्द्रिय होता . है। देव व नारकी भी इसके अधिकारी होते हैं। आगमों में जहां कहीं भी 'संज्ञी' का प्रयोग मिलता है, 7777773333333333333333333333333333333333338 - 156 80 @980@ @ @ @ @ @ @caen.
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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