________________ -tececacaceence 299999999999 2.333333333333333333333333322 नियुक्ति गाथा-20 वहां यह समझना चाहिए कि वहां इसी 'कालिकी' संज्ञा को आधार माना गया है (द्र. नंदी चूर्णि, ca पृ.46, जस्स सण्णा भवति सो आदिपदलोवतो कालिओवदेसेणं सण्णीत्यर्थः)। चूर्णिकार के अनुसार, " कालिकी लब्धि से सम्पन्न प्राणी मनोवर्गणा के अनन्त परमाणुओं का ग्रहण कर मनन करता है। ce कालिकी संज्ञा के द्वारा अतीत की स्मृति, वर्तमान का चिन्तन तथा भविष्य की कल्पना -इन तीनों " ca कालखण्डों का ज्ञान होता है। तत्त्वार्थ भाष्य में इसे संप्रधारण संज्ञा से अभिहित किया गया है (द्र. त. " भाष्य-2/25)। इस संज्ञा के छः कार्य हैं- (1) ईहा- शब्द आदि अर्थ के विषय में अन्वय व व्यतिरेक, धर्मों का विचार, जैसे यह क्या है? (2) अपोह- व्यतिरेक धर्म का परित्याग कर अन्वयी धर्म का ca अवधारण, निश्चय, जैसे- यह खम्भा है। (खम्भे में ही पाए जाने वाले धर्म- अन्वय धर्म हैं, और " & उसमें नहीं पाये जाने वाले धर्म व्यतिरेक धर्म हैं।) (3) मार्गणा- विशेष धर्म का अन्वेषण करना। " मधुर व गम्भीर ध्वनि के कारण 'यह शब्द शेख का है' -यह जानना (4) गवेषणा- ध्वनि के सम्बन्ध में स्वभावजन्य-प्रयोगजन्य, नित्य-अनित्य आदि का विचार करना / (5) चिन्ता- यह कार्य किस . प्रकार किया जाय -यह चिन्तन / (6) विमर्श- त्याज्य धर्म का परित्याग तथा उपादेय धर्म को ग्रहण 1 ca करने के प्रति अभिमुख होना। इन्हीं ईहा आदि को महर्षि चरक ने मन के पांच कार्यों के रूप में 5 & अभिव्यक्त किया है- (1) चिन्त्य (2) विचार्य (3) ऊह्य (4) ध्येय, (5) संकल्प (द्र. वरकसंहिता, 1/3 820) / 2. हेतूपदेशिकी संज्ञा- यह मानसिक चेतना से या कालिकी संज्ञा से निम्नस्तर की वेतना का विकास है, कालिकी संज्ञा त्रैकालिक होती है। हेतूपदेशिकी संज्ञा प्रायः वर्तमान कालिक होती है। कहीं-कहीं अतीत और अनागत का चिन्तन भी होता है किन्तु दीर्घकालिक चिन्तन नहीं होता। हेतूपदेशिकी संज्ञा के विकास में अभिसंधारण -अव्यक्त चिन्तन होता है, इसलिए इस संज्ञा 0 a वाले जीव अपनी क्रियात्मक शक्ति में अव्यक्त चिन्तन का प्रयोग करते हैं। वे चिंतनपूर्वक आहार आदि " इष्ट विषयों में प्रवृत्त होते हैं और अनिष्ट विषयों से निवृत्त होते हैं। हेतूपदेशिकी संज्ञा के आधार पर जीवों के संज्ञी और असंज्ञी -ये दो विभाग किए गए हैंजिस जीव में अभिसंधारणपूर्वक क्रिया शक्ति होती है, वह हेतूपदेशिकी संज्ञा की दृष्टि से संज्ञी है, . जैसे- द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और संपूर्छिम पञ्चेन्द्रिय जीव / जिस जीव में अभिसंधारणपूर्वक ca क्रिया शक्ति नहीं होती, वह हेतूपदेशिकी संज्ञा की दृष्टि से असंज्ञी है। पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रिय " / जीवों की चेतना मत्त, मूर्छित और विष-परिणत चेतना तुल्य होती है। वे इष्ट के लिए प्रवृत्त और अनिष्ट , से निवृत्त होने में समर्थ नहीं होते। 2323222333333 (r) (r)cR@ @ @ @Ren@R@ @ RO908 157