________________ Secaceaecence 9000000000 नियुक्ति गाथा-39-40 (हरिभद्रीय वृत्तिः) ___एतदुक्तं भवति- एकोत्तरवृद्धया व्यवहितान्तरा इति।ता अपि चानन्ता एव।तथा . 'इतरेति'।इतरग्रहणादशून्यान्तराः परिगृह्यन्ते।न शून्यानि अन्तराणि यासांता अशून्यान्तराः, . CM अशून्यान्तराश्च ता वर्गणाश्चेति विग्रहः, अशून्यान्तरवर्गणा अव्यवहितान्तरा इत्यर्थः।ता अपि / च प्रदेशोत्तरवृद्धया खल्वनन्ता एव भवन्ति।ततः 'चतुरिति' / चतसः धुवाश्च ता अनन्तराश्च / धुवानन्तराः प्रदेशोत्तरा एव वर्गणा भवन्ति। ततः 'तनुवर्गणाश्च' तनुवर्गणा इति। किमुक्तं . भवति? भेदाभेदपरिणामाभ्यामौदारिकादियोग्यताऽभिमुखा इति।अथवा मिश्राचित्तस्कब्धद्वययोग्यास्ताश्चतस एव भवन्ति, ततो 'मिश्र' इति मिश्रस्कन्धो भवति। सूक्ष्म . एवेषद्बादरपरिणामाभिमुखो मिश्रः। तथा' इति आनन्तर्ये। अचित्त' इति अचित्तमहास्कन्धः, . सच विससापरिणामविशेषात् केवलिसमुद्घातगत्या लोकमापूरयन्नुपसंहरंश्च भवतीति। (वृत्ति-हिन्दी-) कहने का तात्पर्य यह है कि (शून्यान्तर वर्गणा में) एक-एक प्रदेश की वृद्धि से होने वाले अन्तर में व्यवधान (भी) हो जाता है (उनमें होने वाला उक्त अन्तर , कभी-कभी टूट भी जाता है)। ये भी वर्गणा अनन्त होती हैं। तथा इनसे इतर भी होती हैं। . 5 'इतर' पद से 'अशून्यान्तर' वर्गणा का ग्रहण यहां है। जिनमें अन्तर शून्य नहीं हों, ऐसी जो वर्गणा -इस अर्थ में समस्त पद है- 'अशून्यान्तर वर्गणा', अर्थात् इनमें (उत्तरोत्तर प्रदेशa वृद्धि का) अन्तर अव्यवहित रूप से रहता है। उत्तरोत्तर प्रदेश-वृद्धि वाली ये भी वर्गणाएं - + अनन्त ही होती हैं। इसके बाद, 'ध्रुवानन्तर' (संज्ञक) चार वर्गणाएं होती हैं। ये वर्गणाएं ध्रुव . (सर्वकालस्थायी) होती हैं और 'अनन्तर' (निरन्तर) उत्तरोत्तर एक-एक प्रदेश-वृद्धि वाली ही है होती हैं। इसके बाद (चार) तनु वर्गणाएं (भी) होती हैं। ('तनु' इस नाम से) कहने का क्या , तात्पर्य है? (उत्तर है-) ये अपने भेद या अभेद परिणाम के माध्यम से, औदारिक शरीर, 4 आदि की योग्यता प्राप्त करने की ओर अभिमुख होती हैं, अथवा इन चारों में ही मिश्र स्कन्ध , ce व अचित्त स्कन्ध -इन दोनों के रूप में परिणत होने) की योग्यता होती है। इसके बाद - a ‘मिश्र' स्कन्ध होता है। यह सूक्ष्म ही होता है किन्तु थोड़ा बादर (स्थूल) परिणाम की ओर " ca अभिमुख होता है, इसीलिए उसे 'मिश्र' कहते हैं। और इसी के अनन्तर (विना अन्तर, & व्यवधान के) 'अचित्त' यानी अचित्त महास्कन्ध होता है, जो विससा (स्वभावतः) परिणाम-. * विशेष से, 'केवलीसमुद्घात' की गति से (चार समयों में) लोक को आपूरित करता हुआ (अन्य चार समयों में ही) उपसंहृत पुनः पूर्वरूप को प्राप्त हो जाता है। - (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)Recene 209 3333333333333333333333333333333 33333333333