________________ - Reennence 9009002020900 नियुक्ति-गाथा-66 (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) नारकी देवों को तो जन्मजात अवधिज्ञान होता ही है, & तीर्थंकर को भी प्रसिद्ध पूर्वजन्म की अवधि साथ ही प्राप्त रहती है, अतः स्वतः ही उनके ज्ञान , & का नियत होना सिद्ध है (तब फिर पृथक् रूप से क्यों कहा जा रहा है?) इसका उत्तर दिया है जा रहा है- उनके अवधिज्ञान के नियत होने पर भी यह सिद्ध नहीं होता है कि वह ज्ञान, 8 समस्त कालों में रहता ही है, इसलिए उसको बताने के लिए यह कहा गया है कि वे अवधि ब से अबाह्य ही रहते हैं, अर्थात् वे सर्वदा अवधिज्ञान के धारक होते हैं। (शंका-) यदि ऐसी बात है है तो तीर्थंकरों को तो अवधिज्ञान सर्वकालस्थायी होता नहीं, अतः आपका उक्त कथन विरुद्ध , होता है? उत्तर- ऐसी बात नहीं है, क्योंकि केवलज्ञान की उत्पत्ति होने पर भी, उसमें से & अवधिज्ञान अन्तर्निहित ही रहता है, मात्र (अन्तर यह हो जाता है कि) समस्त अनन्तधर्मयुक्त , वस्तु ज्ञेय हो जाती है (और उसी ज्ञान में अवधि का ज्ञेय 'रूपी द्रव्य' तो समाहित है ही)। C दूसरी बात यह है कि तीर्थंकरों के जो अवधिज्ञान का सदा स्थायी रहना कहा गया है, वह उनके छद्मस्थ काल की दृष्टि से कहा गया है, इसलिए कोई दोष नहीं रह जाता। अधिक कुछ और विस्तार की अपेक्षा नहीं, शेष पूर्ववत् ही। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 66 // विशेषार्थA. प्रस्तुत निरूपण का आधार 'प्रज्ञापना' (का 33वां पद) है। वहां आभ्यन्तरावधि और बाह्य अवधि के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है, जिसका सार इस प्रकार है आभ्यन्तरावधि और बाह्यावधि-जो अवधिज्ञान सभी दिशाओं में अपने प्रकाश्य क्षेत्र को प्रकाशित करता है तथा अवधिज्ञानी जिस अवधिज्ञान द्वारा प्रकाशित क्षेत्र के भीतर ही रहता है, वह a आभ्यन्तरावधि कहलाता है। इससे जो विपरीत हो, वह बाह्यअवधि कहलाता है। बाह्यअवधि अन्तगत और मध्यगत के भेद से दो प्रकार है। जो अन्तगत हो अर्थात् आत्मप्रदेशों के पर्यन्त भाग में स्थित गत हो, वह अन्तगत अवधि कहलाता है। कोई अवधिज्ञान जब उत्पन्न होता है, तब वह स्पर्द्धक के " रूप में उत्पन्न होता है, अर्थात् बाहर निकलने वाली दीपक-प्रभा के समान नियत विच्छेद-विशेषरूप होता है। वे स्पर्द्धक एक जीव के संख्यात और असंख्यात तथा नाना प्रकार के होते हैं। उनमें से / पर्यन्तवर्ती आत्मप्रदेशों में सामने, पीछे, अधोभाग या ऊपरी भाग में उत्पन्न होता हुआ अवधिज्ञान , ce आत्मा के पर्यन्त में स्थित हो जाता है, इस कारण वह अन्तगत कहलाता है। अथवा औदारिक शरीर >> के अन्त में जो गत-स्थित हो, वह अन्तगत कहलाता है, क्योंकि वह औदारिक शरीर की अपेक्षा से . कदाचित् एक दिशा में जानता है। अथवा समस्त आत्मप्रदेशों में क्षयोपशम होने पर भी जो 33333333333333333333322222222233333333333333 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 267