________________ RRRRRRRce 99999999999 -333333333333333333333333333333333333333333333 नियुक्ति-गाथा-13-15 एकेन्द्रियों में प्रतिपद्यमान व पूर्वप्रतिपन्न -इन दोनों का अभाव कहा गया है। क्योंकि वे ce मिथ्यात्वी-अज्ञानी हैं। यह कथन सैद्धान्तिक मत से है। कर्मग्रन्थ के अनुसार लब्धि-पर्याप्त बादर , पृथ्वी, जल, वनस्पति काय के जीव, जो ‘करण-अपर्याप्त होते हैं, पूर्वप्रतिपन्न हो सकते हैं, क्योंकि 4 उनमें सास्वादन सम्यक्त्व के साथ पूर्व भव से आना हो सकता है। किन्तु एकेन्द्रियों में प्रतिपद्यमान " & नहीं होते -इसमें कर्मग्रन्थ व सिद्धान्त पक्ष दोनों सहमत हैं (द्र. मलधारीवृत्ति, विशेषा. भाष्य, गाथा- 2 4 412-413, तथा भगवती सूत्र-8/2/205-207 पर वृत्ति)। a 'काय' द्वार के अन्तर्गत, विविध शरीरों से सम्पन्न जीवों में आभिनिबोधिक ज्ञान के सद्भाव , का विचार किया गया है। स्थावरकाय के पांच भेद तथा त्रस काय -इन्हें मिलाकर छः काय हैं। 6 स्थावरकायों में न तो पूर्वप्रतिपन्न होते हैं और न ही प्रतिपद्यमान | त्रसकाय में पूर्वप्रतिपन्न होते ही हैं, प्रतिपद्यमान तो कुछ ही हो सकते हैं, सब नहीं। & (हरिभद्रीय वृत्तिः) तथा 'योग' इति। त्रिषु योगेषु समुदितेषु पञ्चेन्द्रियवद्वक्तव्यम्।मनोरहितवाग्योगेषु विकलेन्द्रियवत्, केवलकाययोगे तूभयाभाव इति (4) / तथा 'वेदे' इति।त्रिष्वपि वेदेषु विवक्षितकाले पूर्वप्रतिपन्ना अवश्यमेव सन्ति, इतरेतु , भाज्या इति (5) / तथा 'कषाय' इति द्वारम् / कषायाः क्रोधमानमायालोभाख्याः / ca प्रत्येकमनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनभेदभिन्ना इति। तत्रायेषु अनन्तानुबन्धेषु क्रोधादिषूभयाभाव इति।शेषेषु तु पञ्चेन्द्रियवद् योज्यम् (6) / ब . (वृत्ति-हिन्दी-) (4) अब 'योग' द्वार का निरूपण इस प्रकार है- तीनों समुदित , a योगों में पञ्चेन्द्रिय की तरह इसकी वक्तव्यता समझनी चाहिए। मनोयोग से रहित वचन योग में विकलेन्द्रिय की तरह वक्तव्यता है। मात्र काययोग में तो दोनों का अभाव है (क्योंकि " & विकलेन्द्रियों में सासादन का सद्भाव होने पर भी एकेन्द्रियों में उनका असद्भाव होता है)। " (5) अब 'वेद' द्वार का निरूपण इस प्रकार है- तीनों वेदों में विवक्षित समय में ca पूर्वप्रतिपन्न अवश्य होते हैं, अन्य का सद्भाव भजनीय (विकल्प से कथनीय) है। (6) 7 & 'कषाय' द्वार का निरूपण इस प्रकार है- क्रोध, मान, माया व लोभ -ये चार कषाय हैं। . इन चारों में प्रत्येक के भी अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण व संज्वलन / -ये (चार-चार) भेद हैं। इनमें प्रथम अनन्तानुबन्धी क्रोधादि (चार) कषायों में (पूर्वप्रतिपन्नक / 88888333333333333333333333333333333333333333 - (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)R@@@R@80@ 111