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________________ A-RRRRRRRRR 1232222232223333333333333333333222323333333333 नियुक्ति-गाथा-45 000000000 यह कथन है कि यह परमावधि ज्ञान क्षेत्र की दृष्टि से असंख्येय लोक-परिमित खण्डों को & देखता है- इस प्रकार पदों का परस्पर सम्बन्ध (ज्ञातव्य) है। काल की दृष्टि से असंख्यात " वर्षों -अर्थात् असंख्य ही उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी (जैसे काल-खण्डों) को जानता है। तथा : द्रव्य की दृष्टि से वह (परमावधिज्ञान) समस्त रूपी, यानी समस्त मूर्त द्रव्य-समूह को, अर्थात् परमाणु आदि भेदों वाले पुद्गलास्तिकाय को ही जान लेता है। भाव की दृष्टि से आगे ca कहे जा रहे पर्यायों को (परमावधिज्ञान) जान लेता है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) यदुक्तम् 'असंख्येयानि लोकमात्राणि खण्डानि परमावधिः पश्यतीति' तत्क्षेत्रनियमनायाह-उपमानम् उपमितम्, भावे निष्ठाप्रत्ययः, क्षेत्रस्योपमितम्।क्षेत्रोपमितम्, , एतदुक्तं भवति-उत्कृष्टावधिक्षेत्रोपमानम्, 'अग्निजीवाः' प्रागभिहिता एवेति। __आह- 'रूपगतं लभते सर्वम्' इत्येतदनन्तरगाथायामर्थतोऽभिहितत्वात् किमर्थं पुनरुक्तमित्यत्रोच्यते।उक्तः परिहारः।अथवा अनन्तरगाथायां 'एकप्रदेशावगाढम्' इत्यादि / परमावधेर्द्रव्यपरिमाणमुक्तम्, इह रूपगतं लभते सर्वम्' इति क्षेत्रकालद्वयविशेषणम् / एतदुक्तं भवति-रूपद्रव्यानुगतं लोकमात्रासंख्येयखण्डोत्सर्पिण्यवसर्पिणीलक्षणं क्षेत्रकालद्वयं लभते, . न केवलम्, अरूपित्वात्तस्य, रूपिद्रव्यनिबन्धनत्वाच्चावधिज्ञानस्येति गाथार्थः 45 // (वृत्ति-हिन्दी-) ये यह जो कहा गया था कि लोक-परिमित असंख्येय खण्डों को , a परमावधि जानता है, तो उस क्षेत्र को मर्यादित करने की दृष्टि से कहा-क्षेत्रोपमित। उपमित - यानी उपमान, यहां 'भाव' अर्थ में (उपमा-शब्द से) निष्ठा (इ+त) प्रत्यय हुआ है। अतः , क्षेत्रोपमित का अर्थ हुआ-क्षेत्र का उपमान (सादृश्यबोधक द्रव्य)। तात्पर्य है- उत्कृष्ट अवधि, के क्षेत्र का उपमान है- अग्नि जीव, जिसका कथन पहले (गाथा-31 में) किया जा चुका है। (शंका-) 'समस्त 'रूपी' (मूर्त) पदार्थों को जानता है' -इस बात को भाव (तात्पर्य) रूप में (अन्य शब्दों में) पिछली गाथा (44) में कह ही दिया गया था, अब पुनः उसे क्यों कहा : जा रहा है? उत्तर इस प्रकार है- इसका समाधान पहले दिया चुका है (वह यह कि यह पुनरुक्ति यह बताने के लिए की गई है इन सब प्रमेयों (परमाणु, कार्मण शरीर, अगुरुलघु , a आदि) को छोड़ कर अन्य कोई 'रूपी' द्रव्य नहीं है।अथवा पिछली गाथा (44) में एकप्रदेशावगाढ़ से इत्यादि द्रव्यों को परमावधि का द्रव्यपरिमाण कहा गया है, और यहां 'समस्त रूपी द्रव्यों को @@ca(r)(r)(r)(r)(r)(r)ce@989@@@ 223
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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