SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -RRRRRRRRcm හ හ හ හ හ හ හ හ හ E :- ) 333333333333333333333333333333333333333333333 नियुक्ति गाथा-3 | विशेषार्थ यह गाथा नन्दी सूत्र (सू. 67) में भी आई है। इसमें अवग्रह आदि का स्वरूप समझाया - गया है। व्यअनावग्रह और अर्थावग्रह- 1. व्यञ्जन का एक अर्थ है- इन्द्रिय विषय / 2. इसका दूसरा " & अर्थ है- द्रव्येन्द्रिय, अर्थात् इन्द्रिय की विषय-ग्रहण में साधनभूत पौगलिक शक्ति, जिसकी संज्ञा , उपकरणेन्द्रिय है। उपकरणेन्द्रिय के साथ अर्थ का संबंध और संसर्ग होने पर अर्थ व्यक्त होता है। इसलिए यह प्रथम ग्रहण व्यअनावग्रह कहलाता है। विषय व विषयी का संयोग और दर्शन के पश्चात् अर्थ के ज्ञान की धारा शुरू होती है। व्यञ्जनावग्रह में वह अव्यक्त रहती है। इसका कालमान है असंख्य समय। व्यञ्जनावग्रह के अंतिम समय में वह पदार्थ व्यक्त हो जाता है। वह व्यक्त अवस्था & अर्थावग्रह है, जिसका कालमान एक समय है। व्यञ्जनावग्रह अर्थावग्रह कैसे बनता है- इसको & प्रतिबोधक दृष्टांत (नंदी सू. 62) व मल्लक दृष्टांत (नंदी सू. 63) के द्वारा समझाया गया है। चक्षु और 2 मन का व्यञ्जनावग्रह नहीं होता इसलिए उसके चार प्रकार हैं। अर्थावग्रह पांच इन्द्रियों और मन का , होता है, इसलिए उसके छः प्रकार हैं। 4. प्रतिबोधक- (जगाने वाले का) दृष्टान्त का सार यह है-सोये हुए व्यक्ति को जगाने के लिए कोई दूसरा व्यक्ति आवाज देता है। वे शब्द गहरी नींद में सोये हुए व्यक्ति के कर्ण-विवर में प्रविष्ट होते हैं। किन्तु (कभी-कभी) कई देर तक वह जाग नहीं पाता। कारण यह है कि प्रथम समय से लेकर : प्रतिसमय शब्द-पुद्गल प्रविष्ट होते रहते हैं और असंख्यात समयों में (अर्थात् जघन्यतः आवलिका के असंख्येय भाग प्रमाण, और उत्कृष्टतः संख्येय आवलिका के काल-प्रमाण में, जो 2 से लेकर 9 तक & की संख्या वाला श्वासोच्छ्वास काल-प्रमाण होता है,) सुप्त व्यक्ति को शब्द-विज्ञान उत्पन्न करते हैं। & वृत्तिकार के अनुसार, चरम समय में प्रविष्ट पुद्गल ही ज्ञान के उत्पादक बनते हैं, शेष प्रविष्ट पुद्गल a इन्द्रिय-क्षयोपशम के उपकारक होते हैं। मल्लक दृष्टान्तः-सूखे मिट्टी के सकोरे (पात्र) में एक-एक बूंद डालते हैं तो वह बूंद उसमें a समा जाती है, सकोरा गीला नहीं होता, किन्तु डालते-डालते वह सकोरा गीला हो जाता है। इस " प्रकार असंख्यात समयों में प्रविष्ट होते रहने वाले जलबिन्दुओं में से अन्तिम बिन्दु उसे गीला होने की , स्थिति तक पहुंचाते हैं। यहां यह ज्ञातव्य है कि असंख्यात (या असंख्येय) समय भी कोई दीर्घ काल नहीं होता / वस्तुतः, एक बार आंखों की पलकें झपकाने जितने काल में असंख्यात समय बीत जाते हैं। -8888888888888888888888888888888888888888883 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy