________________ ब 22 RED ca ca CE CR NE CROR श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 20 20 20 20 20 900 कोई वस्तु 'अवगत' (निर्णीत, अपायात्मक) नहीं होती, और बिना 'अवगत' हुए धारणा नहीं। होती। अथवा यहां 'काकु' (प्रश्नादि वाचक स्वर के माध्यम से भिन्नार्थ के संकेत की / ॐ पद्धति) के माध्यम से उक्त कथन ग्राह्य है। ‘काकु' से उक्त कथन का तात्पर्य इस प्रकार : होगा- आभिनिबोधिक ज्ञान के क्या ये ही चार भेद हैं? इसका उत्तर है- संक्षेप में ही हैं, .. भेदरहित (अर्थात् भेदोपभेदों की सूक्ष्मता या विस्तार में न जाकर) अवग्रह आदि के भावों के .. & स्वरूप को ध्यान में रखकर ये चार भेद किये गए हैं, विस्तार से नहीं, क्योंकि विस्तार से तो 1 cइस (मति ज्ञान) के अट्ठाईस भेद होते हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 2 // विशेषार्थ ___ प्रस्तुत गाथा नन्दी सूत्र में भी (सं. 66) आई है। इस में श्रुतनिश्रित के चार प्रकार बताए गये / र हैं- अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा / इन्द्रिय और अर्थ का उचित देश में अवस्थान होने पर अर्थ ce का ग्रहण होता है। ग्रहण की प्रक्रिया इस प्रकार है 1. इन्द्रिय और अर्थ का उचित देश में अवस्थान। 2. दर्शन- पदार्थ की सत्ता मात्र का निराकार ग्रहण। 3. व्यअनावग्रह- इन्द्रिय और अर्थ के संबंध का ज्ञान / यहां वस्तु का अव्यक्त ज्ञान होता है। 4. अर्थावग्रह- अर्थ का ग्रहण अथवा ज्ञान, जैसे- मैंने कुछ देखा है। व्यंजनावग्रह की * अपेक्षा यह ज्ञान अधिक व्यक्त होता है, किन्तु उसे नाम आदि से निर्देश करना सम्भव नहीं होता। 5. ईहा- पर्यालोचनात्मक ज्ञान, जैसे- यह घट होना चाहिए। 6. अवाय- निर्णय, यह घट ही है। 7. धारणा- अविच्युति, घट के ज्ञान का संस्कार रूप में बदल जाना। . (हरिभद्रीय वृत्तिः) इदानीमनन्तरोपन्यस्तानामवग्रहादीनां स्वरूपप्रतिपिपादयिषयेदमाह नियुक्तिः) अत्थाणं उग्गहणं अवग्गहं तह वियालणं ईहं। ववसायंच अवार्यधरणंपुण यधारणं बिंति॥३॥ [संस्कृतच्छायाः- अर्थानाम् अवग्रहणम्, अवग्रहम्, तथा विचारणम् ईहाम् / व्यवसायम् अपायम् घरणं च धारणां विदन्ति // ] (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)ce@@ - 3333333333333333333333333333