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________________ RRRRRRRRRR හ හ හ හ හ හ හ හ හ . .223222223322323222332223333333333333333333333 नियुक्ति गाथा-3 (वृत्ति-हिन्दी-) इन (दो प्रकार के मति ज्ञानों) में श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के स्वरूप को स्पष्ट करने हेतु नियुक्तिकार कह रहे हैं (3) (नियुक्ति-अर्थ-) अर्थों के अवग्रहण को 'अवग्रह', अर्थों के पर्यालोचन को 'ईहा', ca अर्थों के निर्णयात्मक ज्ञान को 'अवाय' और उसके धारण को 'धारणा' कहते हैं। (हरिभद्रीय वृत्तिः) तत्र अर्यन्ते इत्यर्थाः, अर्यन्ते गम्यन्ते परिच्छिद्यन्त इतियावत्।ते च रूपादयः, तेषां / अर्थानाम्, प्रथमं दर्शनानन्तरं ग्रहणम् अवग्रहणम् अवग्रहं ब्रुवत इतियोगः। आह- वस्तुनः सामान्यविशेषात्मकतयाऽविशिष्टत्वात् किमिति प्रथमं दर्शनं न * ज्ञानमिति।उच्यते, तस्य प्रबलावरणत्वात्, दर्शनस्य चाल्पावरणत्वादिति। सच द्विधा-व्यञ्जनावग्रहोऽर्थावग्रहश्च, तत्र व्यञ्जनावग्रहपूर्वकत्वादविग्रहस्य प्रथमं " & व्यञ्जनावग्रहः प्रतिपाद्यत इति। (वृत्ति-हिन्दी-) जो प्राप्त किये जाएं, अर्थात् जाने जाएं, वे 'अर्थ' होते हैं, जैसे रूप o आदि। उन अर्थों का प्रथम 'दर्शन' होने के बाद उनका ग्रहण -या अवग्रहण होता है, वह 'अवग्रह', 'कहा जाता है' इसका योग यहां किया जाता है। यहां किसी ने शंका की- वस्तु तो सामान्य-विशेषात्मक होती है, अतः वह अविशिष्ट है- उसमें सामान्य या विशेष -इस प्रकार भेद नहीं है, तब प्रथमतया 'दर्शन' ही क्यों कहते र हैं, ज्ञान क्यों नहीं? उत्तर दे रहे हैं- ज्ञान का आवरण प्रबल है, किन्तु दर्शन का आवरण 4 अल्प होता है, इसलिए (प्रथमतः 'दर्शन' होता है, ज्ञान नहीं)। वह अवग्रह दो प्रकार का है- व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह / इनमें व्यञ्जनावग्रह4 पूर्वक ही अर्थावग्रह होता है- इसलिए पहले व्यञ्जनावग्रह का प्रतिपादन किया गया है। -444744 88888888888888888888888888888888888888 8888888888888900908Rene 45 /
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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