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________________ ස හ හ හ හ හ හ .,, ඇව. Secece RRECE नियुक्ति गाथा-1 (भूमिका) वाद्य के रूप में यह वाद्य 10 अंगुल मोटा एवं 4 अंगुल लम्बा होता है। इसका बीच आर-पार से पोला / होता है। एक अंगुल के दल वाले इस वाद्य के एक मुख को चमड़े से मढ़ा जाता है। बजाते समय चमड़े , c को पानी से भिगो कर बाएं हाथ से उसका किनारा दबाकर दाहिने हाथ से बजाया जाता है। घनवाद्य के रूप में यह वाद्य आज जयघंटा के रूप में प्रायः हिन्दू मंदिरों में आरती के समय : ce बजाया जाता है। संगीत रत्नाकर के अनुसार-जय घंटा कांसे का होता था जो समतल, चिकना तथा 7 गोल होता था। मोटाई आधे अंगुल के बराबर होती थी। इसके वृत्त के किनारे पर दो छिद्र होते थे, जिनमें डोरी डालकर लटकाने योग्य बना लिया जाता था। इसे बाएं हाथ में पकड़कर दाएं हाथ में है कोई कठोर वस्तु लेकर बजाया जाता था, जिसे लौकिक भाषा में झालरि, झालर भी कहते थे। इसी // ca का बृहद् रूप महाघंटा होता था, जो कांसे अथवा अष्टधातु से निर्मित किया जाता था। (6) हुडुक्कः- इस वाद्य का उल्लेख राजप्रश्नीय, दशाश्रुत स्कन्ध, औपपातिक व जम्बूद्वीप , प्रज्ञप्ति आदि आगमों में मिलता है। यह 'डमरू' से कुछ बड़ा आकार का होता है। इसे हुडुक्का, हुडुक, डेरु आदि नामों से भी पुकारते हैं। यह दो मुखा अवनद्ध वाद्य 16 अंगुल लंबा तथा बीच में से कुछ " ca पतला होता है। इसके मुख का व्यास आठ-आठ अंगुल होता है। झिल्ली सादी होती है, और लगभग " डमरू जैसे आकार पर मढ़ी जाती है। इसमें कुछ छेद करके डोरियां कसी जाती हैं। डोरी के अंत में . on एक अन्य डोरी होती है। इसी को पकड़कर वाद्य बजाया जाता है। स्वर की ऊंचाई-नीचाई के लिए 2 << हुडुक्क की रस्सियों को ढीला और कड़ा किया जाता है। इसका एक छोटा रूप हुडुक्की भी होता है। " & उत्तर भारत में कहार जाति के लोगों द्वारा इसका प्रयोग किया देखा जाता है। (7) कंसाल (कांस्यताल)- इस वाद्य का उल्लेख राजप्रश्नीय, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति व निशीथ , आदि जैन आगमों में मिलता है। प्राचीन व मध्ययुगीन संगीत ग्रन्थों में इसे घनवाद्य के रूप में , ca स्वीकारा गया है। अनेक आचार्यों ने इसे वर्तमान के अवनद्ध वाद्य झांझ का एक रूप या पर्याय माना " है। कुछ स्थलों में झांझ व कंसताल का पृथक्-पृथक् नामोल्लेख भी है, अतः इन दोनों की भिन्नता भी , 4 प्रतीत होती है। सम्भवतः कंसताल से तात्पर्य कांसे से बने ताल-यानी मंजीरा वाद्य हो। संगीत ग्रन्थों ca में प्राप्त इस कांस्यताल का विवरण इस प्रकार है- यह कांसे की कमलिनी के पत्र के आकार का 0 ca होता है। इसका व्यास 13 अंगुल का होता है। इसके बीच दो अंगुल प्रमाण की गोलाई तथा एक . & अंगुल प्रमाण की गहराई वाली नाभि होती है। ताल वाद्य की भांति इसमें भी मध्य में छेद होता है। 22222223333333333333333333333333333332 1 जिसमें अलग-अलग डोरी डालकर भीतर से गांठ लगा दी जाती है। ऊपर की ओर उसी डोरी में ca कपड़ा लपेटकर इस प्रकार बांध देते हैं कि वह दोनों हाथों की मुट्टियों में पकड़ने के लिए मूठ का . " काम करें। प्रायः देवी-देवताओं की स्तुति, मंदिरों एवं शोभायात्रा के समय तथा अन्य उत्सवों पर इसका प्रयोग किया जाता है। (r)(r)RO908cR@@@@R89@CR(r)(r)
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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