________________ -RRRRRRRece හ හ හ හ හ හ හ හ හ **y 3333333333 222223333333333322822333333333 नियुक्ति गाथा-१ सकते हैं- (1) जैसे कोई किसी गुरुजन आदि से कहे- 'आपकी अनुमति (इच्छा) हो तो मैं / प्रतिक्रमण करना चाहता हूं।' (2) कोई व्यक्ति किसी साथी से कहे- 'आपकी इच्छा हो तो यह कार्य कीजिए', (3) आप यह कार्य कीजिए, इसमें मेरी अनुमति है। (या ऐसी मेरी इच्छा है)। इस प्रकार a की भाषा इच्छानुलोमा कहलाती है। (8) अनभिगृहीता-जो भाषा किसी नियत अर्थ का अवधारण न . कर पाती हो, वक्ता की जिस भाषा में कार्य का कोई निश्चित रूप न हो, वह अनभिगृहीता भाषा है। " जैसे किसी के सामने बहुत-से कार्य उपस्थित हैं, अतः वह अपने किसी बड़े या अनुभवी से पूछता हैce 'इस समय में कौन-सा कार्य करूं?' इस पर वह उत्तर देता है- 'जो उचित समझो, करो।' ऐसी भाषा 0 से किसी विशिष्ट कार्य का निर्णय नहीं होता, अतः इसे अनभिगृहीता भाषा कहते हैं। (9) अभिगृहीता- 2 जो भाषा किसी नियत अर्थ का निश्चय करने वाली हो, जैसे- इस समय अमुक कार्य करो, दूसरा कोई कार्य न करो। इस प्रकार की भाषा अभिगृहीता है। (10) संशयकरणी-जो भाषा अनेक अर्थों , & को प्रकट करने के कारण दूसरे के चित्त में संशय उत्पन्न कर देती हो। जैसे- किसी ने किसी से " कहा- सैन्धव ले आओ। सैन्धव शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, जैसे- घोड़ा, नमक, वस्त्र और पुरुष। , 'सैन्धव' शब्द को सुनकर यह संशय उत्पन्न होता है कि यह नमक मंगवाता है, या घोड़ा आदि / यह ca संशयकरणी भाषा है। (11) व्याकृता- जिस भाषा का अर्थ स्पष्ट हो, जैसे- यह घोड़ा है। (12) " ca अव्याकृता- जिस भाषा का अर्थ अत्यन्त ही गूढ हो, अथवा अव्यक्त (अस्पष्ट) अक्षरों का प्रयोग , करना अव्याकृता भाषा है, क्योंकि वह भाषा ही समझ में नहीं आती। असत्यामृषा भाषा पूर्वोक्त सत्या, मृषा और मिश्र -इन तीनों भाषाओं के लक्षण से विलक्षण ल होने के कारण न तो सत्य कहलाती है, न असत्य और न ही सत्यामृषा , यह भाषा केवल & व्यवहारप्रवर्तक है। . . प्रज्ञापना सूत्र की मलयगिरि-वृत्ति के अनुसार, उपर्युक्त- चारों प्रकार की भाषाओं को जो " & जीव सम्यक् प्रकार से उपयोग रख कर प्रवचन (संघ) पर आई हुई मलिनता की रक्षा करने में तत्पर , होकर बोलता है, अर्थात्- प्रवचन (संघ) को निन्दा और मलिनता से बचाने के लिए गौरव-लाघव का , 6 पर्यालोचन करके चारों में से किसी भी प्रकार की भाषा बोलता हुआ साधुवर्ग आराधक होता है, . विराधक नहीं। किन्तु जो उपयोगपूर्वक बोलने वाले से पर-भिन्न है तथा असंयत (मन-वचन-काय " के संयम से रहित) है, जो सावद्य व्यापार (हिंसादि पापमय प्रवृत्ति) से विरत नहीं (अविरत) है, जिसने , अपने भूतकालिक पापों को मिच्छा मि दुक्कडं (मेरा दुष्कृत मिथ्या हो), देकर तथा प्रायश्चित्त आदि / व स्वीकार करके प्रतिहत (नष्ट) नहीं किया है तथा जिसने भविष्य कालसम्बन्धी पाप न हों, इसके लिए 2 पापकर्मों का प्रत्याख्यान नहीं किया है, ऐसा जीव चाहे सत्यभाषा बोले या मृषा, सत्यामृषा या . असत्यामृषा में से कोई भी भाषा बोले, वह आराधक नहीं, विराधक है। - (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)909 91 9 33333388888888888888888888888888888888888888