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________________ - - 333333333333333333333333333333333333333333333 - caca Rcaca caca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 'अवधि'-क्षेत्र (2) संख्येय अन्तराल के बाद असंख्येय ‘अवधि' क्षेत्र, (3) असंख्येय अन्तराल के बाद संख्येय ‘अवधि' क्षेत्र और (4) असंख्येय अन्तराल के बाद संख्येय 'अवधि' क्षेत्र - . ये चार विकल्प संभावित हैं। सम्बद्ध 'अवधि' में तो कोई (वैसा) विकल्प नहीं बनता (क्योंकि , वहां अन्तराल होता ही नहीं)। और लोक यानी चौदह राजू प्रमाण (विस्तृत) पञ्चास्तिकायमय , लोक में / अलोक में, यानी मात्र आकाशास्तिकाय रूप क्षेत्र में। 'च' शब्द समुच्चय-वाचक है, . ca अतः वाक्यार्थ होगा- लोक में और अलोक में सम्बद्ध / यह किस तरह है? (उत्तर-) (एक " & विकल्प यह है-) (1) पुरुष में सम्बद्ध है और लोक में भी, अर्थात् ऐसा अवधिज्ञान " 'लोकप्रमाण' अवधि होता है। (2) पुरुष से सम्बद्ध होता है, लोक में नहीं, ऐसा 'अवधि' देश - रूप से (आंशिक रूप में) अभ्यन्तर-अवधि (अबाह्य) है। (3) पुरुष में सम्बद्ध नहीं, लोक में : सम्बद्ध / यह भङ्ग शून्य है, सम्भव नहीं है। (5) न ही पुरुष से और न ही लोक में सम्बद्ध। ऐसा अवधि ‘बाह्यावधि' होता है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) इयं भावना-लोकाभ्यन्तरः पुरुषे संबद्धोऽसंबद्धो वा भवति, यस्तु लोके संबद्धः स . नियमात्पुरुषे संबद्ध इति, अतो भङ्गचतुष्टयं तृतीयभङ्गशून्यमिति, अलोकसंबद्धस्त्वात्मसंबद्ध, 6 एव भवतीति गाथार्थः // 67 // (वृत्ति-हिन्दी-) भाव यह है-लोक-अबाह्य अवधिज्ञान पुरुष में सम्बद्ध भी होता है , & या असम्बद्ध भी। जो लोक से सम्बद्ध होता है, वह नियमतः पुरुष से सम्बद्ध होता है। : इसलिए चारों भङ्गों में तीसरा भङ्ग नहीं होता। अलोक से सम्बद्ध भी ‘अवधि' आत्मसम्बद्ध ही होता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 67 // विशेषार्थ यहां सम्बद्ध व असम्बद्ध अवधिज्ञान का निरूपण है।लोकाभ्यन्तर व्यक्ति के दोनों प्रकार के अवधिज्ञान होते हैं-सम्बद्ध और असम्बद्ध / उत्पत्ति-क्षेत्र से लेकर निरन्तर व्यक्ति के साथ रहने वाला " 'सम्बद्ध' होता है और कुछ अन्तराल के साथ रहने वाला 'असम्बद्ध' होता है। जैसे बहुत दूर कोई दीपक रखा हुआ हो, ऐसी स्थिति में ज्ञाता उस दीपक के प्रकाश में दूर की कुछ वस्तुएं तो देख पाता , है, किन्तु बीच के अन्तराल को नहीं देख पाता अर्थात् ज्ञाता स्वयं भी उस अन्तराल में समाविष्ट है। " यह अन्तराल संख्यात योजन भी हो सकता है और असंख्यात योजन भी / उस अवधि का क्षेत्र भी संख्यात योजन हो सकता है और असंख्यात भी। - 270 @@ca(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)0898800 ..
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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