________________ -222323232222222222222223333333333333333333333 -RRcaca cacaca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 9009000000 / इन्द्रिय कम से कम अंगुल के असंख्यात भाग मात्र देश से आए गन्ध आदि को ग्रहण करती / है, और अधिक से अधिक नौ योजन दूर तक से आए हुए (गंध आदि) को / यहां योजन का , मान आत्मांगुल के आधार पर किया जाता है- यह जानना चाहिए। & विशेषार्थ इन्द्रियों की विषय-ग्रहण क्षमता के सम्बन्ध में प्रज्ञापना (5/1/992) में तथा विशेषावश्यक भाष्य (गाथा-340) आदि में एवं उनकी व्याख्याओं में भी पर्याप्त विचार किया गया है, जिसे संक्षेप में : & वृत्तिकार ने प्रस्तुत किया है। उसे सरल शब्दों में इस प्रकार समझा जा सकता है श्रोत्रेन्द्रिय जघन्यतः आत्मांगुल के असंख्यातवें भाग दूर से आए हुए शब्दों को सुन सकती है और उत्कृष्ट 12 योजन दूर से आए हुए शब्दों को सुनती है, बशर्ते कि वे शब्द अच्छिन अर्थात् - 1 अव्यवहित हों, उनका तांता टूटना या बिखरना नहीं चाहिए। दूसरे, वायु आदि से उनकी शक्ति प्रतिहत , c& न हो गई हो, साथ ही वे शब्द-पुद्गल स्पृष्ट होने चाहिएं, अस्पृष्ट शब्दों को श्रोत्र ग्रहण नहीं कर & सकते। इसके अतिरिक्त वे शब्द-पुद्गल स्पृष्ट होने चाहिएं, अस्पृष्ट शब्दों को श्रोत्र ग्रहण नहीं कर सकते। इसके अतिरिक्त वे शब्द निर्वृत्तीन्द्रिय में प्रविष्ट भी होने चाहिएं। इससे अधिक दूरी से आए हुए ca शब्दों का परिणमन मन्द हो जाता है, इसलिए वे श्रवण करने योग्य नहीं रह जाते। चक्षुरिन्द्रिय जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग की दूरी पर स्थित रूप को तथा उत्कृष्ट एक लाख योजन दूरी पर " स्थित रूप को देख सकती है। किन्तु वह रूप अच्छिन्न (दीवार आदि के व्यवधान से रहित), अस्पष्ट और अप्रविष्ट पुद्गलों को देख सकती है। इससे आगे के रूप को देखने की शक्ति नेत्र में नहीं है, चाहे , व्यवधान न भी हो। निष्कर्ष यह है कि श्रोत्र आदि चार इन्द्रियां प्राप्यकारी होने से जघन्य अंगुल के है ca असंख्यातवें भाग दूर के शब्द, गंध, रस और स्पर्श को ग्रहण कर सकती है, जबकि चक्षुरिन्द्रिय " 4 अप्राप्यकारी होने से जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग दूर स्थित अव्यवहित 'रूपी' द्रव्य को देखती है, . 9 इससे अधिक निकटवर्तीरूप को वह नहीं जान सकती, क्योंकि अत्यन्त सन्निकृष्ट अंजन, रज आदि को भी नहीं देख पाती। प्रकाशात्मक पदार्थों में उक्त नियम नहीं- विशेषावश्यक भाष्य (गाथा-345-347) में स्पष्ट & किया है कि जो पदार्थ तैजस प्रकाश रहित हैं, जैसे पर्वत आदि, उन्हीं में यह नियम लागू होता है कि " नेत्र अधिक से अधिक (साधिक) एक लाख योजन तक ही देख सकती है। किन्तु सूर्य आदि स्वतः / प्रकाशमान पदार्थों में यह नियम प्रयुक्त नहीं है। पुष्करवरद्वीप के अर्ध भाग में जो मनुष्योत्तर पर्वत से लगा हुआ है, कर्क संक्रान्ति के समय वहां के लोग-(अधिक) इक्कीस लाख योजन दूरी पर स्थित - 64 (r) (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)cenece@080868609 (r)cal