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________________ acacacacacece श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 00000000 333333333333333333333333333333333331 / उनका (यथार्थ) बोध कराने वाली एवं 'जनपदसत्य' आदि (के आधार पर विभिन्न प्रकार / ce वाली, ऐसी भाषा को (वक्ता ग्रहण करता है और छोड़ता है)। सत्या भाषा से विपरीत स्वरूप , वाली, एवं 'क्रोध मिश्र' आदि-भेदों वाली जो भाषा है, वह 'मृषा' (असत्य) होती है (उसे भी वक्ता गहण करता व छोड़ता है)। तथा (सत्या व मृषा -इन) के स्वभाव वाली और वस्तु के / एकदेश (अंशभूत धर्म-विशेष) का प्रतिपादन करने वाली एवं 'उत्पन्नमिश्र' आदि भेदों वाली & जो भाषा है, वह 'सत्यामृषा' होती है (उसे भी वक्ता ग्रहण करता है व छोड़ता है)। तथा (इन " पूर्वोक्त) तीनों भाषाओं में अनधिकृत (अपरिगणित), शब्द मात्र स्वभाव वाली, एवं 'आमन्त्रणी' . & आदि भेदों वाली भाषा 'असत्यामृषा' होती है, उसे भी (वक्ता ग्रहण करता व छोड़ता है)। यहां , 'च' शब्द समुच्चय ('और' -इस) अर्थ को व्यक्त करता है अर्थात् वक्ता द्वारा ग्रहण की जाने वाली और छोड़ी जाने वाली भाषाओं में इन चारों भाषाओं का ग्रहण करना चाहिए। इन सभी & भाषाओं के स्वरूप आदि का सोदाहरण निरूपण (प्रज्ञापना आदि) सूत्र (आगम) से जाना ca जा सकता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // विशेषार्थ अहिंसा के साधकों के लिए वाणी-संयम अत्यन्त अपेक्षित माना गया है। विशेष कर श्रमण- " ce चर्या में तो यह अनिवार्यतः अपेक्षित है ही। इसी दृष्टि से दशवैकालिक सूत्र के सप्तम अध्ययन में स्पष्ट " & कहा गया है कि मुनि भाषा के चार प्रकारों को जानकर, उनमें दो प्रकार की भाषा का तो कभी, प्रयोग न करे। असत्याऽमृषा और सत्य भाषा -जो पूर्णतः निष्पाप, मृदु व संदेह रहित हो- वही , भाषा बोलने योग्य होती है। सत्यमृषा, मृषा, अवक्तव्य सत्य एवं बुद्ध पुरुषों द्वारा अप्रयुक्त भाषा का . & प्रयोग सर्वदा वर्जनीय है।जो कठोर व जीव-हिंसा में निमित्त हो -ऐसा सत्य भी नहीं बोलना चाहिए। " सत्या भाषा को मूलगुण व उत्तरगुणों की अविरोधिनी कहा गया है। मुनित्व की साधना में जो , अनिवार्य गुण होते हैं, वे मूलगुण होते हैं और जो साधना में प्रगति के लिए अपेक्षित होते हैं, वे उत्तरगुण होते हैं। सूत्रकृतांग-नियुक्ति के अनुसार, पांच महाव्रत मूलगुण हैं और बारह प्रकार का तप & उत्तरगुण है। ठाणं-10, तथा भगवती-7/2 में अनागत-प्रत्याख्यान आदि दस उत्तरगुण बताये गए हैं। वह भाषा जो इनका उपघात करती हो, 'सत्या' नहीं कहलाती। प्रस्तुत प्रकरण में भाषा की महत्ता को ध्यान में रखकर भाषा के चार भेदों का निर्देश किया , गया है। टीकाकार ने इनके स्वरूपों की भी संक्षेप में विवेचना की है और विशेष परिचय हेतु आगमों : के स्वाध्याय का संकेत भी किया है। इन भाषाओं के सम्बन्ध में स्थानांग (दशम स्थान) तथा - 86 B BCRecr@ @ @ @ @ @ @ @ @
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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