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________________ -eeeeeeence 0000000000 नियुक्ति-गाथा-13-15 किन्तु बादर एकेन्द्रिय जीवों में बादर नामकर्म का उदय होता है। ये जीव लोक के प्रतिनियत ca देश में रहते हैं, सर्वत्र नहीं / यद्यपि बादर एकेन्द्रिय जीव भी ऐसे हैं कि प्रत्येक का पृथक्-पृथक् शरीर . दृष्टि-गोचर नहीं होता है किन्तु उनके शारीरिक परिणमन में बादर रूप से परिणमित होने की, 4 अभिव्यक्त होने की विशेष क्षमता होने से वे समुदाय रूप में दिखलाई दे सकते हैं। इसलिए उन्हें " ce ज्ञानगम्य होने के साथ-साथ व्यवहारयोग्य कहा गया है। सूक्ष्म और बादर सभी प्रकार के एकेन्द्रिय जीवों के संज्ञी और असंज्ञी मानने का कारण संज्ञा शब्द के कई अर्थ हैं- (1) आहार, भय, मैथुन, परिग्रह की इच्छा। (2) धारणात्मक या ऊहापोह रूप विचारात्मक ज्ञान विशेष / जीवों के संज्ञित्व और असंज्ञित्व के विचार करने के प्रसंग में संज्ञा का आशय नाम-निक्षेपात्मक न लेकर मानसिक क्रिया विशेष लिया जाता है। यह मानसिक क्रिया दो प्रकार की होती है- ज्ञानात्मक और अनुभवात्मक (आहारादि की इच्छा रूप)। इसीलिये , संज्ञा के दो भेद हैं- ज्ञान और अनुभव / मति, श्रुत आदि पांच प्रकार के ज्ञान ज्ञानसंज्ञा हैं और (1) 8 आहार, (2) भय, (3) मैथुन, (4) परिग्रह, (5) क्रोध, (6) मान, (7) माया (8) लोभ (9) ओघ, (10) 20 < लोक, (11) मोह, (12) धर्म, (13) सुख, (14) दुःख (15) जुगुप्सा, (16) शोक, यह अनुभव संज्ञा के 16 भेद हैं। ये अनुभव संज्ञायें सभी जीवों में न्यूनाधिक प्रमाण में पाई जाती हैं। इसलिए ये-संज्ञी- असंज्ञी व्यवहार की नियामक नहीं है। शास्त्रों में संज्ञी और असंज्ञी का जो भेद माना जाता है वह 8 अन्य संज्ञाओं की अपेक्षा से है। नोइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम या तज्जन्य ज्ञान को संज्ञा कहते cm हैं। नोइन्द्रियावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर जीव मन के अवलम्बन से शिक्षा, क्रिया, उपदेश और & आलाप को ग्रहण करता है। < संज्ञा के चार भेद हैं- ओघसंज्ञा, हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा, दीर्घकालिकोपदेशिकी संज्ञा, और दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा / एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त के जीवों में चैतन्य का विकास, क्रमशः * अधिकाधिक है और इस विकास के तरतम भाव को समझाने के लिए निम्नलिखित चार विभाग ca किये गये हैंR (1) ओघसंज्ञी- अत्यन्त अल्प विकास वाले जीव -यह विकास इतना अल्प होता है कि इस c. विकास वाले जीव मूर्छित की तरह चेष्टारहित होते हैं। इस प्रकार की अव्यक्त चेतना को ओघसंज्ञा . कहते हैं। एकेन्द्रिय जीव ओघसंज्ञा वाले होते हैं। a (2) हेतुवादोपदेशिकी संज्ञी- इस विभाग में विकास की इतनी मात्रा विवक्षित है कि जिससे कुछ भूतकाल का स्मरण किया जा सके / यद्यपि इस विकास में भूतकाल का स्मरण किया जाता है | लेकिन सुदीर्घ भूतकाल का नहीं। इससे इष्ट विषयों में प्रवृत्ति और अनिष्ट विषयों में निवृत्ति भी होती / - (r)(r)ce@@RO 908 ROOR@@@@08 1270 333333333333333333333333333333333333333333333 &&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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