________________ -cace ce ca cacaca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 नन्दी चूर्णिकार ने एक गाथा उद्धृत की है। उसका तात्पर्य भी यही है गणहरकतमंगगतं जं कतं थेरेहिं बाहिरं तं च / णियतं वंगपविजें अणियतसुत बाहिरं भणितं // उमास्वाति ने अङ्गबाह्य के कर्ता और उद्देश्य दोनों का निरूपण किया है। उनके अनुसार, M अङ्गबाह्य के रचनाकार आचार्य गणधर की परम्परा में होते हैं उनका आगम ज्ञान अत्यन्त विशुद्ध, ल होता है। वे परम प्रकृष्ट वाक्, मति, बुद्धि और शक्ति से अन्वित होते हैं। वे काल, संहनन, आयु की & दृष्टि से अल्पशक्ति वाले शिष्यों पर अनुग्रह कर जो रचना करते हैं वह अङ्गबाह्य है। आगम रचना के विषय में पूज्यपाद, अकलंक, वीरसेन और जिनसेन जैसे दिगम्बर 1 & आचार्यों का अभिमत भी ज्ञातव्य है। पूज्यपाद के अनुसार आगम के वक्ता तीन होते हैं- 1. सर्वज्ञ- 1 & तीर्थंकर अथवा अन्यकेवली, 2. श्रुतकेवली, 3. आरातीय (उत्तरवर्ती) आचार्य। सर्वज्ञतीर्थंकर ने , 8 अर्थागम का प्रतिपादन किया। आरातीय आचार्यों ने कालदोष से प्रभावित आयु, मति, बल को ध्यान / में रखकर अङ्गबाह्य आगमों की रचना की -ऐसा सर्वार्थसिद्धिकार (आ. पूज्यपाद) का मत है। " R अङ्गबाह्य आगम की रचना के विषय में अकलंक का अभिमत पूज्यपाद जैसा ही है। वीरसेन ने " षट्खण्डागम में अङ्गबाह्य के रचनाकार के रूप में इन्द्रभूति गौतम का उल्लेख किया है। , हरिवंशपुराणकार जिनसेन के अनुसार अङ्गप्रविष्ट और अङ्गबाह्य का अर्थ महावीर ने बतलाया और म उन दोनों की रचना गौतम गणधर ने की। अतः अङ्गबाह्य आगम की रचना के विषय में प्रमुख मत तीन हैं 1. भगवान् महावीर के द्वारा अर्थ रूप में प्रतिपादन और गणधरों द्वारा उनकी रचना।। 2. इन्द्रभूति गौतम द्वारा अङ्गबाह्य की रचना। 3. आरातीय आचार्यों द्वारा अङ्गबाह्य की रचना / दशवैकालिक आदि अङ्गबाह्य आगम के c& रचनाकार श्रुतकेवली हैं, गणधर हैं। प्रज्ञापना, अनुयोगद्वार आदि अङ्गबाह्य आगम रचना की भी यही स्थिति है। गमिक-अगमिक श्रुत-पाठ रचना शैली के आधार पर आगम श्रुत के दो विभाग किए गए 1 & हैं- 1. गमिक, 2. अगमिक। गम के दो अर्थ होते हैं- 1. भङ्ग, गणित, 2. सदृश पाठ। जो रचना 'भङ्ग प्रधान' अथवा , 'सदृश पाठ प्रधान' होती है, उसकी संज्ञा गमिक है। इसका प्रतिपक्ष अगमिक है। नन्दी चूर्णिकार | और नन्दी वृत्तिकारों ने गमिक का अर्थ 'सदृश पाठ प्रधान रचना-शैली' किया है। उनके अनुसार - 160 888890(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 333333333333333333333322333333333333333333333