________________ OR PER CROR (220*RO (RROR / भद्रबाहु (द्वितीय) * अधिकांश जैन विद्वान् भद्रबाहु (द्वितीय) को नियुक्तिकार मानते हैं। अतः इनके सम्बन्ध में . भी यहां विचार किया जाना उचित होगा। आ. भद्रबाहु (द्वितीय) ज्योतिर्विद् वराहमिहिर के भाई थे। वराहमिहिर का समय वि. लगभग छठी शती माना जाता है, क्योंकि उन्हीं के द्वारा रचित ग्रन्थ पंचसिद्धान्तिका' में इसका रचना-काल शक सं. 427 अर्थात् वि. सं. 562 निर्दिष्ट किया गया है सप्ताश्विवेदसंख्यंशककालमपास्य चैत्रशुक्लादौ। अर्धास्तमिते भानौ यवनपुरे सौम्यदिवसाद्ये // ___ अतः भद्रबाहु (द्वितीय) का समय वि. सं. 500-600 के मध्य (छठी से सातवीं शती के प्रारम्भ तक) माना जाना चाहिए। इन्हीं भद्रबाहु की रचना उपसर्गहर स्तोत्र व भद्रबाहुसंहिता (अनुपलब्ध)४ ये दो ग्रन्थ भी हैं। नियुक्तियों के भी इन्हीं के द्वारा रचित होने की संभावना इसलिए भी बलवती होती है क्योंकि उनकी मंत्रविद्याकुशलता का दर्शन कुछ स्थलों पर होता है। उदाहरणार्थ, आवश्यक नियुक्ति ? 4 में वर्णित गन्धर्व नागदत्त के कथानक में नाग-विष उतारने की क्रिया का निर्देश है जिसमें उपसर्गहरा ल स्तोत्र के 'विसहरफुल्लिंगमंतं' इत्यादि पद्य की प्रतिच्छाया देखी जा सकती है। इसके अतिरिक्त, M उन्होंने सूर्यप्रज्ञप्ति पर भी नियुक्ति की रचना की थी, जिसमें भी इनका ज्योतिर्विद्-स्वरूप समर्थित होता है। आ. भद्रबाहु (द्वितीय) का जीवन-वृत्त ___ 'प्रबन्धकोश' में वर्णित कथानक के अनुसार महाराष्ट्र के प्रतिष्ठानपुर में एक ब्राह्मण परिवार / ल में इनका जन्म हुआ। इनके कनिष्ठ भ्राता का नाम वराहमिहिर था, जो इतिहास में एक महान् / ज्योतिर्विद्-विद्वान् के रूप में प्रसिद्ध हुए। इनका गृहस्थ जीवन निर्धन वह निराश्रित अवस्था में बीता।। CM दोनों भाइयों के मन में विरक्ति की भावना जगी और इन्होंने जैनी दीक्षा अंगीकार की। विनय, भद्रता व , विद्वत्ता आदि गुणों के कारण मुनि-संघ में भद्रबाहु की प्रतिष्ठा निरन्तर बढ़ती ही गई और इन्हें आचार्य , ल पद प्राप्त हुआ। इससे वराहमिहिर ने अपनी हीनता अनुभव की। अहंभाव व ईर्ष्या के आवेश में , 2 वराहमिहिर ने मुनिवेश त्याग दिया और प्रतिष्ठानपुर के राजा के यहां पहुंचा। राजा का नाम जितशत्रु था, न जो वराहमिहिर के विशिष्ट निमित्तज्ञान से प्रभावित हुआ और उसने वराहमिहिर को अपना प्रधान , ल पुरोहित बना लिया। वराहमिहिर ने स्वयं को ज्योतिष विद्या का सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता घोषित किया और वह " ईर्ष्यावश आचार्य भद्रबाहु की बढ़ती प्रतिष्ठा को निर्मूल करने के निरन्तर प्रयास करता रहा, किन्तु वह में सफल नहीं हो पाया। - 0 CROR ORROROR BOOR 80 OR VII