SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 3333332802.22.23222.23322322223333333333333333 REARRB CROR(R: BOOR HAIR ) (REE ग्रन्थों को देख कर इनकी 'चतुर्दशविद्यास्थाननिपुणता' का स्वत: निश्चय हो जाता है। हरिभद्र की यह - प्रतिज्ञा थी कि जिस पद्य का अर्थ मैं नहीं समझ पाऊंगा, उसके वक्ता (या रचयित.) का मैं शिष्यत्व ) स्वीकार कर लूंगा। इनके जैन धर्म के प्रति झुकाव के पीछे एक प्रमुख घटना थी, जो इस प्रकार है __ एक दिन आचार्य हरिभद्र राजमहल से वापिस घर लौट रहे थे तो उन्होंने रास्ते में एक भवन में स्त्रियों का मधुर स्वर सुना। उन्होंने जब इस पर अपना ध्यान केन्द्रित किया तो उन्हें ज्ञात हुआ कि कुछ स्त्रियां (साध्वियां) एक प्राकृत आर्या (पद्य) का गान कर रही हैं। उनमें यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि इस पद्य का क्या अर्थ है। हरिभद्र बहुत प्रयास करने पर भी उसका अर्थ नहीं समझ पाए। वह गाथा इस प्रकार थी चक्किदुगं हरिपणगं पणगं चक्कीण केसवो चक्की। केसव चक्की केसव, दुचक्कि केसी अ चक्की अ॥ यह गाथा आवश्यकनियुक्ति की (421वीं) है, उनमें चक्रवर्ती और वासुदेवों की परम्परा के सम्बन्ध पर प्रकाश डाला गया है। इसका अर्थ इस प्रकार है: "पहले दो चक्रवर्ती होते हैं, उसके अनन्तर 5 हरि (वासुदेव) होते हैं। इसके बाद 5th चक्रवर्ती, एक कशव, एक चक्रवर्ती, एक केशव, एक चक्रवर्ती, एक केशव, दो चक्रवर्ती, एक केशव- इस प्रकार के अनुक्रम के बाद, अन्त में एक चक्रवर्ती की उत्पत्ति होती है।" ___हरिभद्र को जैन परम्परा और इतिहास की जानकारी तो थी नहीं, इसलिए वे उक्त पद्य का अर्थ नहीं समझ सके। इसलिए हरिभद्र ने उपहास एवं रोष को व्यक्त करते हुए कहा- 'यह चक-चक 8 क्या लगा रखी है?' उक्त गाथा को पढ़ने वाली याकिनी नाम की एक जैन-साध्वी थी। उसने हरिभद्र : व द्वारा किए गए उपहास का प्रत्युत्तर देते हुए कहा- 'बेटे! यह गोमय (गोबर) से लिपा हुआ नया-नया 0 * स्थान है।' साध्वी के कथन का भाव यह था कि जिस प्रकार किसी घर में नया-नया गोबर का लेप कर दिया गया हो तो वह घर चक-चक करता है- अर्थात् चमकता है, उसी प्रकार मेरी यह गाथा तुम्हारे / लिए नई-नई है (अज्ञातपूर्व है)- इसलिए तुम इसका अर्थ नहीं समझ सकते। इतना सुनते ही हरिभद्र ल के अभिमान पर मानो घड़ों पानी पड़ गया, और उन्होंने उक्त साध्वी से आग्रह किया- 'माता'! आप , उक्त गाथा का अर्थ समझाएं, अपनी पूर्वप्रतिज्ञा के अनुरूप मैं स्वयं को आपका शिष्य मानने को " र तैयार हूं।' 08Rॐ08RORRECTOBRORS 08 IXE
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy