________________ A A) RO RO RO (RP) * (R) (R) (R) (R साध्वी ने नम्रतापूर्वक कहा कि हमें आगमों के अध्ययन की अनुमति तो अपने गुरु से प्राप्त / (r हुई है किन्तु हमारे गुरु ने उनके अर्थ करने की अनुमति नहीं प्रदान की है। यदि आप को उसका अर्थ ) जानना हो तो आप हमारे गुरु के पास जाएं। आचार्य हरिभद्र साध्वी याकिनी के गुरुवर्य आचार्य : जिनभट्ट के पास पहुंचे और श्रद्धा से उनके चरणों में अपने आपको उन्होंने समर्पित कर दिया। अपनी 2 प्रतिज्ञा के अनुसार उन्होंने आचार्य जिनभट्ट की शिष्यता स्वीकार की। जैन धर्म में दीक्षित होकर 3 - उन्होंने अपना जीवन जैन धर्म-दर्शन की प्रभावना में समर्पित कर दिया। समस्त शास्त्रों के पारंगत तथा जैन शासन के महान् धर्मप्रभावक आचार्य हरिभद्र जैसे शिष्य " को पाकर गुरु धन्य हो गए। उन्होंने अपना उत्तराधिकारी बना कर उन्हें 'आचार्य-पद' प्रदान किया तथा 'हरिभद्र सूरि' यह नाम घोषित किया। जिस याकिनी महत्तरा के कारण उनके जीवन एवं विचारों में चमत्कारी परिवर्तन हुआ, उसके प्रति आचार्य हरिभद्र ने अपने ग्रन्थों में कृतज्ञता एवं श्रद्धा के भाव व्यक्त किए हैं। हरिभद्र ने / 3 याकिनी महत्तरा को अपनी धर्म-माता के रूप में स्वीकार किया और अपने ग्रन्थों के अन्त में " 2 'याकिनी-महत्तराधर्मसूनु' के रूप में बड़े गौरव के साथ अपना परिचय प्रस्तुत किया। हरिभद्र सूरि ने जैन-धर्म की प्रभावना एवं अल्पमति व्यक्तियों की सुविधा के लिए तथा 0 "R अपनी गुरु-परम्परा से प्राप्त ज्ञाननिधि को सुरक्षित रखने के लिए अनेक शास्त्रों की रचना की। इनके लग्रन्थों की संख्या 1400 से उपर बताई जाती है। चन्द्रप्रभ सूरि-रचित 'प्रभावकचरित', मुनिचन्द्र सूरिकृत उपदेश टीका, अभयदेव सूरि-कृत पंचाशक-टीका आदि ग्रन्थों में ग्रन्थों की संख्या 1400 बताई गई है। किन्तु 'प्रबन्धकोष' में यह संख्या 20 1440 है। रत्रशेखर सूरिकृत 'श्राद्धप्रतिक्रमणार्थ दीपिका'- टीका, अंचलगच्छ पट्टावली, विजयलक्ष्मी : सूरिकृत 'उपदेशप्रासाद', क्षमाकल्याण उपाध्यायकृत 'खरतरगच्छ पट्टावली' आदि ग्रन्थों में यह ल संख्या 1444 बताई गई है। अस्तु, यह संख्या कुछ भी रही हो, किन्तु आज इनकी उपलब्ध कृतियों की & संख्या100 से कम ही है। o आचार्य हरिभद्र ने अपने द्वारा विरचित विशाल साहित्य-राशि से जैन शासन व धर्म की जो ) महती प्रभावना की है, वह जैन परम्परा के इतिहास में स्वर्णाक्षरों मे लिखी जाने योग्य है। महानिशीथ सूत्र का उनके द्वारा किया गया उद्धार इस प्रसंग में उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त, एक अनुश्रुति के (म अनुसार, मेवाड़ में पोड़वाल वंश की स्थापना उन्होंने की थी और इस जाति के लोगों को जैन-धर्म का " / अनुयायी बनाया था। A XN8ROROPRIR000र