________________ IRRRRRRR ෆ ෆ ෆ ෆ ෆ ෆ --------- - 333333333333333333333333333333333333333333332 नियुक्ति गाथा-1 (भूमिका) बुद्धि-साम्य के आधार पर (अर्थात् वैनयिकी भी चार बुद्धियों में से एक है, इस दृष्टि से) ca नियुक्तिकार ने उसका भी 'अश्रुतनिश्रित' में ग्रहण कर दिया है, अतः उनका वैसा करना , (भी) अविरुद्ध है (संगत हो जाता है)। अब इस सम्बन्ध में अधिक कहने की अपेक्षा नहीं , & रह जाती है॥1॥ & विशेषार्थ प्रस्तुत गाथा में आभिनिबोधिकज्ञान के दो प्रकार बतलाए गए हैं- 1. श्रुतनिश्रित और 2. .. अश्रुतनिश्रित / इन्द्रियों से वस्तु का निर्विकल्प बोध अथवा दर्शन होता है। वह परोपदेश से सविकल्प या साकार बनता है। उदाहरणार्थ- एक बालक आंख से पुस्तक को देखता है। उसके रंग और " ca आकार को जान लेता है। इसके अतिरिक्त उस पुस्तक के बारे में अन्य कुछ भी नहीं जानता / माता- 1 ca पिता अथवा शिक्षक से उसके विषय में उसे अन्य जानकारी मिलती है। यह मानस ज्ञान ही श्रुत है। " इस प्रक्रिया के आधार पर श्रुत को मतिपूर्वक कहा गया है। इन्द्रियजन्य बोध -अर्थात् यह इस रंग, B रूप और आकार वाली कोई वस्तु है- इतना ज्ञान मतिज्ञान है। इसके पश्चात् परोपदेश से होने वाला , ज्ञान श्रुतज्ञान है। श्रुतज्ञान से जिस वासना या संस्कार का निर्माण होता है, वह भविष्य के ज्ञान का 20 व स्थायी आधार बनता है। भविष्य में यह उस पुस्तक को समग्रता से जान लेता है। उस समय किसी 9 के उपदेश की अपेक्षा नहीं होती। इस प्रक्रिया के दो अंग हैं- वह पुस्तक को देखकर समग्रता से जान , लेता है, यह मतिज्ञान है। उसकी मति पहले श्रुत से परिकर्मित अथवा संस्कारित है- इसलिए यह 0 विशुद्ध मतिज्ञान नहीं है। इन दोनों अंगों की संयोजना से एक तीसरे तत्त्व का निर्माण हुआ है, वह है & है श्रुतनिश्रित मतिज्ञान अथवा श्रुतनिश्रित आभिनिबोधिकज्ञान। 4. आ. हरिभद्र के अनुसार श्रुतनिश्रित मतिज्ञान 'पूर्व में श्रुत-संस्कारित' मति वाले के होता है, . किन्तु वर्तमान में वह श्रुत-निरपेक्ष होता है। विचारने पर श्रुतनिश्रित आभिनिबोधिक ज्ञान उभयात्मक प्रतीत होता है। इन्द्रियजन्य होने के कारण वह आभिनिबोधिक है तथा श्रुतपरिकर्मित अथवा श्रुत से 20 व संस्कारित होने के कारण वह श्रुतज्ञान है। इस प्रक्रिया में वह न केवल आभिनिबोधिक है और न " केवल श्रुतज्ञान / इसलिए इसका नाम श्रुतनिश्रित आभिनिबोधिकज्ञान रखा गया है। यहां तथाविध , क्षयोपशम से उत्पन्न आभिनिबोधिक को अश्रुतनिश्रित आभिनिबोधिकज्ञान कहा गया है। निष्कर्ष यह है है कि जिस आभिनिबोधिकज्ञान की उत्पत्ति में द्रव्यश्रुत व भावश्रुत की अपेक्षा नहीं रहती, वह // ca अश्रुतनिश्रित आभिनिबोधिकज्ञान है। उसके चार प्रकार हैं- 1. औत्पत्तिकी 2. वैनयिकी 3. कार्मिकी 4. पारिणामिकी। ये चार विशिष्ट बुद्धियां हैं। औत्पत्तिकी बुद्धि इन्द्रियातीत और शब्दातीत चेतना का विकास है। इसलिए इसकी - @RecRO BRBRBRBRB CR@@m@CR898 &&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&& 41