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________________ 333333333333333333333333333333333333333333332 -aca cace cacace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 9000000 प्रस्तुत प्रकरण में आत्मा की सावयवता की युक्तियुक्तता का समर्थन किया गया है। आत्मा a को सावयव मानने पर शरीर के हाथ, पांव, सिर, ग्रीवा आदि विविध अवयवों की पृथक-पृथक् सात्मकता (सचेतनता, आत्मसंबद्धता) संगत या सम्भव हो जाती है। आत्मा भी सावयव है और " शरीर के विविध अंग भी सावयव हैं। आत्मा के अवयवों का शरीर के अवयवों के साथ संसर्ग होता . है। निरवयव आत्मा का उनसे पृथक्-पृथक् संसर्ग हो नहीं पाएगा। निष्प्रदेश आत्मा का प्रत्येक अवयव के साथ युगपत् संसर्ग हो तो सब अवयवों की एकता -अभिन्नता हो जाएगी। किसी एक c. शरीरावयव से निष्प्रदेश आत्मा का संसर्ग हो जाय तो दूसरे अन्य अवयवों के साथ संसर्ग नहीं हो - ca पाएगा, और आत्मा युगपत् सभी अवयवों के साथ सम्बद्ध हो तो सभी की एकात्मता हो जाएगी, . भिन्नता नहीं रह पाएगी। आत्मा को सावयव मानने पर यह दोष नहीं रहता, क्योंकि आत्मा के कुछ अवयव हाथ से, कुछ अवयव ग्रीवा से सम्बद्ध हो जाते हैं और प्रत्येक शरीरावयव आत्मा के विभिन्न अवयवों से जुड़ता हुआ, अपनी-अपनी स्वतन्त्र, भिन्न स्थिति कायम रखता है। भाषा कौन सी?- प्रस्तुत प्रकरण में यह भी स्पष्ट किया गया है कि वक्ता अपने कायिक , योग से भाषावर्गणा के योग्य पुद्गल-द्रव्यों का ग्रहण करता है, वह भाषा नहीं है। इसी तरह बोलने , 8 के बाद जो शब्द आकाश-प्रदेशों में फैलते हैं, प्रतिध्वनित होते हैं, या श्रवणयोग्य होते हैं, वह भी / ce 'भाषा' नहीं कहा जा सकता। पुद्गल-द्रव्यों के ग्रहण के बाद जो वाचिक योग से जो भाषा-द्रव्य " & उत्सर्जित होते हैं, उसी उत्सर्जन की स्थिति में 'भाषा' की सत्ता है जो वक्ता द्वारा भाषित होती है। इस से तथ्य की प्ररूपणा भगवती-सूत्र (1/10) में भी की गई है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) यदुक्तं- 'त्रिविधे शरीरे' इत्यादि, तत्र न ज्ञायते कतमत् त्रैविध्यमिति, अतस्तदभिधातुकाम आह (नियुक्तिः) ओरालियवेउवियआहारो गिण्हई मुयइ भासं। सच्चं मोसं सच्चामोसं च असच्चमोसं च // 9 // [संस्कृतच्छायाः-औदारिक-वैक्रिय-आहारको गृह्णाति मुश्चति भाषाम् ।सत्यां सत्यमृषां मृषांच & असत्यमृषां च // ] (वृत्ति-हिन्दी-) (पूर्व गाथा में) त्रिविध शरीर में (जीव प्रदेश होते हैं-) इत्यादि कथन : किया गया था। वहां यह (स्पष्ट) ज्ञात नहीं होता कि वे शरीर के तीन प्रकार कौन से हैं? " इसलिए उसे बताने की इच्छा से (नियुक्तिकार) कह रहे हैं- 84 @@comcaeyca@2889089808990
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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